इस्लामिक नियम और संसारिक क़ानून के बीच बडा अंतर है। इन निम्न लिखित कारणों के अनुसारः
इस्लामिक शरिअत महानता, सम्मानता और आध्यात्मिक प्रेम की विशेषता रखती है। क्यों कि इसके अन्दर धार्मिक गुण हैं। इसकी स्थापना करनेवाला ईशवर है। वह ईशवर जिसके लिए सारे दिलों में महान सम्मानता है और उसी के आगे सब झुकते हैं।
इस्लामिक शरिअत हर समुदाय, हर क़ौम से निकट है, हालांकि उनका व्यवहार, सभ्यता, जात और भाषाएँ विभिन्न होती है। इसलिए कि शरिअत का बनाने वाला पवित्र ईशवर है, जो पूर्वकाल और भविष्य काल का ज्ञान रखता है। मानव, उनकी प्रकृति, व्यवहार, वृत्ति की ख़बर रखता है। जब कि ईशवर हवस और इच्छाओं के पीछे चलने से बहुत दूर है। अतः एक ओर का होकर अपने रुख़ को दीन (धर्म) की ओर जमा दो, अल्लाह की उस प्रकृत्ति का अनुसरण करो जिस पर उसने लोगों को पैदा किया। अल्लाह की बनाई हुई संरचना बदली नही जा सकती। यही सीधा और ठीक धर्म है, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं। (अल-रूम, 30)
जहाँ तक संसारिक क़ानून की बात है, तो इसकी स्थापना करनेवाले मानव है। वे ज्ञान के किसी भी दर्जे को पहुँच जाये फिर भी उनका ज्ञान संपूर्ण नही है। अगर वे कल (पूर्वकाल) और आज (वर्तमान काल) का ज्ञान पाले, लेकिन वे आनेवाले कल का ज्ञान कभी प्राप्त नही कर सकते। अगर वे कुछ मानवीय व्यवहार का ज्ञान प्राप्त करले लेकिन वे हर एक मानव के व्यवहार का ज्ञान प्राप्त नही कर सकते। इसी कारण संसारिक क़ानून हर प्रकृति और हर सभ्यता से मेल नही खाता है। क्योंकि यह क़ानून किसी एक समूह के लिए उपयुक्त हो, तो दूसरों के लिए वह उपयुक्त नही होगा ।
इस्लामिक शरिअत सत्य और न्याय से अनुरूप है। क्योंकि इसमें अशुद्ध, ग़लत, ज़ुल्म, अन्याय होने का या हवस और इच्छाओं के पीछे चलने की संभावना नही है। ईशवर ने कहा । तुम्हारे रब की बात सच्चाई और इन्साफ़ के साथ पूरी हुई, कोई नहीं जो उसकी बातों को बदल सके, और वह सुनता, जानता है। (अल-अनआम, 115)
वही एक ईशवर है जो इच्छाओं से पवित्र है। हर विषय के बाह्य और आंतरिक का ज्ञान रखता है। अपने भक्तों के समस्याओं का ज्ञानी है। वह उसी विषय का आदेश देता है, जिसमें भक्तों का लाभ हो, और उसी विषय के करने से रोकता है जिसमें उनका नष्ट हो। संसारिक क़ानून, अशुद्ध, ग़लती, भूल और हवस की मार से पीडित हो सकते हैं। इसी कारण वह ग़लती, परिवर्तन और भूल से सुरक्षित नही रह सकता। ईशवर ने कहा । यदि यह अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की ओर से होता तो निश्चय ही वे इसमें बहुत-सी बेमेल बातें पाते। (अल-निसा, 82)
इस्लामिक शरिअत स्वयं वह नियम नही है, जिसकी स्थापना लोगों के विचारों ने की हो। बल्कि इनको ईशवर ने मानवीय प्रकृति और मनोदशा के अनुसार बनाया है। क्योंकि जिसने लोगों की सृष्टि की है वही उनकी उपयुक्तता का अधिकतर ज्ञान रखता है। क्या वह नही जानेगा जिसने पैदा किया । वह सूक्ष्मदर्शी, ख़बर रखने वाला है। (अल मुल्क, 14)
और वही इस बात का ज्ञान रखता है कि मानव से बोझ को कैसे हल्का किया जाय। अल्लाह चाहता है कि तुमपर से बोझ हलका कर दे, क्योंकि इन्सान निर्बल पैदा किया गया है। (अल-निसा, 28)
जब कि संसारिक क़ानून विधिकार की इच्छाओं, उसकी रूचियों और सभ्यता के अनुसार बनाये जाते हैं ।
इस्लामिक शरिअत बाहय और अंतरिक कार्य से संबंध रखती है। ईशवर ने कहा । जान रखो कि अल्लाह तुम्हारे मन की बात भी जानता है। अतः उससे सावधान रहो, और यह भी जानलो कि अल्लाह अत्यन्त क्षमा करनेवाला, सहनशील है। (अल-बक़रा, 235)
मानव निर्मित उन क़ानूनों के विपरीत, जो केवल बाहय कार्य ही का ध्यान रखते हैं। आध्यत्मिकता और भविष्य जीवन से कोई रूचि नही रखते । जहाँ तक दण्ड का प्रश्न है, तो मानवीय निर्मित क़ानून में यह केवल संसारिक है।