इस्लाम धर्म का स्त्रोत वह महान प्रजापति है, जिसने मानव और ब्रह्माण्ड की हर चीज़ की सृष्टि की है। इस धर्म का देवत्व स्त्रोत होना इसके लिए कई विशेषताएँ उपलब्ध कराता है। इनमें से एक यह कि ईशवर ही प्रजापति और दानी है। उसी को नियम बनाने का अधिकार है। सारे नबी और उनके अनुयायी एक ईशवर की ओर ही नियमों को सौंपते थे। उसके अतिरिक्त हर नियम को ग़लत समझते थे। नबी और रसूलों के समापक ने अपने नियमों के बारे में जो कहा है, उसका विवरण करते हुए ईशवर ने यह कहा। कह दो, मैं कोई पहला रसूल तो नही हूँ। और मैं नही जानता कि मेरे साथ क्या किया जाएगा और न यह कि तुम्हारे साथ क्या किया जाएगा मैं तो बस उसी के अनुगामी हूँ जिसकी प्रकाशना मेरी ओर की जाती है और मैं तो केवल एक स्पष्ट सावधान करनेवाला हूँ। (अल-अहक़ाफ़, 9)
ईशवर ने रसूल (ईशवर के पास अपने ऊँचे दर्जे और बुलन्द शान के बावजूद) ईशवर द्वारा अपनी ओर अवतरित किये हुए नियमों का पालन करते हैं। आप स्वयं कुछ घढ़नेवाले और विधि बनाने वाले नही हैं। ना आप ईशवर की विधि का उल्लंघन करने वाले हैं। ईशवर प्रजापति है । इसी कारण वही अपनी प्रजा का अधिकतर ज्ञान रखता है। ईशवर ने कहा । क्या वह नही जानेगा जिसने पैदा किया। वह सूक्ष्मदर्शी, ख़बर रखनेवाला है। (अल-मुल्क, 14)
ईशवर अपने भक्तों की वृत्ति (प्रकृति), उनकी सुधार ने और बिगाड़ने वाली चीज़ें, उनके लाभ और नष्ट का अधिकतर ज्ञान रखता है। कारीगर के अतिरिक्त कोई और उसकी कारीगरी का ज्यादा ज्ञान नही रखता है। ईशवर ने कहा । कहो, तुम अधिक जानते हो या अल्लाह । (अल-बक़रा, 140)
ईशवर का ही विधिकार (क़ानून बनाने वाला) होना इस विधि को पूर्ण न्यायिक और सत्य बनाता है। ईशवर की पवित्रता की दृष्टि से यह बात असंभव हैं कि वह जीव में से किसी एक भक्त के पक्ष में बात करे। इसी प्रकार इस्लामिक दण्ड संसारिक जीवन और परलोक मे मिलने वाला हैं। जो व्यक्ति किसी भी कारण से संसारिक जीवन में अपना अधिकार प्राप्त न किया हो, या अपने दुर्व्यवहार के कारण उसको दण्ड न दिया गया हो, तो वह परलोक में इस का बदला ज़रूर पायेगा ।
सब इस बात को स्वीकार करते हैं कि नियमों का लक्ष्य केवल उसकी स्थापना से प्राप्त नही होता है। बल्कि आनंद और विश्वास के साथ लोगों के स्वीकार करने पर आधारित होता है। इसी प्रकार नियमों का वांछित लक्ष्य केवल उसकी अच्छी स्थापना और अच्छे आदेशों से पूरा नहीं होता है। बल्कि इसके साथ-साथ इस नियमों का उन लोगों के द्वारा पालन करना ज़रूरी है, जिनके लिए यह नियम बनाये गये। शर्त यह होगी कि लोग स्वयं प्रेरित होकर इन नियमों का पालन करे। यह प्रेरिता लोगों के अन्दर नियमों के न्यायिक होने का विश्वास रखने, उनको पसन्द करने और विधिकार (अल्लाह) के आदेशों से प्रसन्न होते हूए इन नियमों का पालन करने पर विधिकार की ओर से बदली मिलने का यक़ीन रखने पर पैदा होती है। क्योंकि इस्लामिक नियम विश्वास और पसन्द पर आधारित है। ईशवर ने इस्लाम की शिक्षा देने में इसी का आदेश दिया है। उनके विषय में वह बात कहो जो प्रभावकारी हो। (अल-निसा, 63) अच्छा तो नसीहत करो। तुम तो बस एक नसीहत करनेवाले हो। तुम उनपर कोई दारोगा नहीं हो। (अल-ग़ाशियह, 21, 22)
इसी कारण ईशवर ने अपने नबी (मुहम्मद) के प्रवेश होने को सीमित करदिया। नबी ने कहाः मुझे तो केवल उच्च नैतिकता को पूर्ण करने के लिए भेजा गया है।
सारे मानवीय नियम और संसारिक क़ानून से इस्लामिक नियम को यह विशेषता प्राप्त है कि वह संसारिक जीवन में और परलोक में भी दण्ड और पुरस्कार देता है। परलोक का बदला सदा संसारिक बदले से अधिकतर महान होता है। इसी कारण मुस्लिम के मन में स्वयं प्रेरणा पैदा होती है, जो उसको आदेशों का पालन करने और ईशवर का अनुयायी बन ने की ओर ले जाती है। (हालांकि संसारिक जीवन में उसके लिए दण्ड से मुक्ति पाना संभव है) क्योंकि उसका यह विश्वास होता है कि ईशवर की आँख कभी सोती नही। लोग संसारिक जीवन में अपने कार्य के अनुसार ईशवर के सामने पकड़े जायेंगें । ईशवर ने कहा। क्या वह समझता है कि उसपर किसी का बस न चलेगा। (अल-बलद, 5)
ईशवर ने यह भी कहा क्या वह समझता है कि किसी ने उसे देखा नहीं । (अल-बलद, 7)
इस्लामिक नियम एक समूह के फायदों को दूसरे समूह पर प्रधानता नही देता है, और न किसी व्यक्ति के विरोध में दुसरे व्यक्ति के पक्ष बात करता है। लेकिन इस्लामिक नियम ने इस्लाम को अपने जीवन की विधि न माननेवाले अधिकतर मानवीय समुदाय जिस कठिन समस्या से पीडित है, उस समस्या का समाधान किया है। वह समस्या समुदाय में व्यक्तिगत लाभ और सामुदायिक लाभ के बीच का तनाव है। हम यह देखते हैं कि कुछ समुदाय बिल्कुल व्यक्तिगत लाभ को प्रधानता देती है। जैसा कि पूंजिवादी व्यवस्था का हाल है। जब कि कुछ समुदाय ने समुदायिक लाभ को प्रधानता दी और व्यक्तिगत लाभ का नाश किया । उसकी विशेषता, स्वतंत्रता और मालिक बनने के अधिकार की वृत्ति को ज़ब्त किया, जिससे उसका व्यक्तित्व निम्न हो जाता है, प्रतिभाएँ छुप जाती है और उसकी क्षमताएँ व्यर्थ हो जाती है। लेकिन इस्लाम ने अपने नियमों की व्यवस्था मानव के समुदाय में इन अधिकारों के बीच संतुलन रखने पर आधारित किया। इस्लामिक समुदाय के लिए इस्लाम ने सामुदायिक लाभ का ख्याल रखा। लेकिन साथ-साथ इस्लाम मुस्लिम व्यक्ति के लाभ से असावधान नहीं। राजनीतिक विभाग में हम यह देखते हैं कि राजा के लिए यह अधिकार है कि प्रजा उसके आदेशों का पालन करे, लेकिन शर्त यह है कि राजा के आदेश इस्लामिक नियमों के अनुसार हो। जिसमें सामुदायिक लाभ का खयाल रखा गया हो। वरना इस्लाम राजा से उसका यह अधिकार छीन लेता है । क्यों कि ईशवर के आदेशों से हटकर दूसरे विषयों में राजा का आज्ञा पालन करना ज़रूरी नही है ।
इस्लाम बुनियादी नियमों पर आधारित है, जिसमें कोई परिवर्तन होने वाला नही है। वह अपने प्रथम स्त्रोतों से स्थापित है। वह स्त्रोत पवित्र सुरक्षित क़ुरआन है, जिसकी सुरक्षा ईशवर करता है। यह नसीहत निश्चय ही हमने अवतरित की है और हम स्वयं इसके रक्षक हैं । (अल हिज्र, 9)
असत्य उस तक ना आसकेगा । असत्य उस तक न उसके आगे से आ सकता है और न उसके पीछे से, अवतरण है उसकी ओर से जो अत्यन्त तत्तवदर्शी, प्रशंसा के योग्य है। (हा-मीम अस-सजदा, 42)
ईशवर के नबी की हदीस (पवित्र वाणी) सुरक्षित और बडे ध्यानपूर्वक रूप में लिखी गयी है। क़ुरआन और हदीस के अधिकतर वाणी शरीयत के साधारण आदेशों का तो विवरण करते हैं, लेकिन इस आदेशों का पालन करने से संबंधित बातों का विवरण नहीं करते। ताकि ज्ञानी (उलमा) लोगों के पास अंदाज़ा लगाने का प्रधिकार रहे, जिससे वे परिस्थितियों का समय के साथ बदलने का खयाल रखे। लेकिन पालन करने के इन बडी सीमाओं को ऐसी सत्यता से मिलाकर छोडा, जो सरलता और क्षमता से संबंधित हो। क्योंकि महत्व यह है कि लक्ष्य प्राप्त हो। चाहे इस लक्ष्य तक पहुँचने वाले साधन और उसके रूप जो भी हो। शर्त यह होगी कि वह (साधन) या रूप किसी पवित्र वाणी या इस्लामी शरीयत के किसी नियम से न टकराती हो। इसी कारण इस्लामिक शरिअत में समुदायिक लाभ के अनुसरण करने का नियम बडी हद तक सरलता और विकास की क्षमता पर आधारित है। इसी प्रकार पूर्व काल में न पाये जानेवाले नये आदेशों का प्रकट होना कोई आश्चर्य की बात नही, क्योंकि इन आदेशों के संबंधित घटनाएँ प्रकट होती हैं।