इस्लामिक सभ्यता के कुछ विशेश और मुख्य तत्व है, जिसके द्वारा सभ्यता अपने लक्ष्य, नियम और सिद्धांत में अन्य सभ्यताओं के मुक़ाब्ले संपूर्ण हो जाती है। हालांकि इस सभ्यता और अन्य सभ्यताओं के बीच कुछ बातें मिलीझुली भी हो सकती है।
इस्लामिक सभ्यता का सिद्धांत यूनानि सभ्यता के समान बुद्धि कि प्रशंसा नही है। न रूमानि सभ्यता के प्रकार प्रभाव, शासन और शक्ति कि प्रशंसा है। न पारसियों के समान भौतिक रुचियों, सैन्य बल और राजनीतिक प्रभाव है। न भारतीय और चीनियों के समान आध्यात्मिक शक्ति का अधिक ध्यान है। न साधु सन्तों का प्रभाव है, जो मिथक और किवदंतियों का मिश्रण है। इसी चीज़ ने पश्चिम को मध्ययुगीन के अंधेरों में रखा। न भौतिक ज्ञान, ब्रह्माण्ड के खनिज पदार्थ से लाभ उठाने, और सरकश भौतिकवाद का नाम इस्लामिक सभ्यता है। जिस प्रकार कि यूनान और रोम से मिलनेवाली आधुनिक सभ्यता की विधि है। बल्कि इस्लामिक सभ्यता एकीकरण के सिद्धांत, सोंच-विचार, ज्ञान, कार्य आत्मा, विकास, मानव और बुद्धि को सम्मान देने पर आधारित है। यानी उन सारे विषयों पर जो मानवीय जीवन के भाग है। इस प्रकार से इस्लामिक सभ्यता स्वयं एक संपूर्ण संविधान है, जो अन्य सभ्यताओं से बिल्कुल भिन्न है। इस्लामिक सभ्यता अपने भीतर युद्ध की शक्ति, न्याय विरोधी के साथ नर्मी, भलाई की इच्छा और सारे संसार के लिए ज्ञान को फैलाने के कारण अन्य सभ्यताओं पर विशिष्टता रखती है। इसी कारण फिर से अपने भीतर स्थिर तत्व के अनुसार इस्लामी सभ्यता को मानवता पर शासन करने का अधिकार मिलता है।
ईमान (विश्वास) प्रसन्नता के मार्ग का सारा ज्ञान प्राप्त करने और सभ्यता का सृजन करने का सबसे बडा कारण है। हर वह सभ्यता जो ईशवर पर विश्वास और एकीकरण के सिद्धांत पर आधारित नही है, वह अपने अंदर नियमों में टकराव रखता है। जो एक दूसरे का विरोध करते हैं। क्योंकि इन सभ्यताओं में नाम बदल बदल कर ईशवर के अलावा कई अन्य प्रभु बनालिये गये हैं। यही वह कारण है जो मानवीय जीवन का बिगाड़ और अप्रसन्नता की ओर ले जाती है। ईशवर ने कहा। यदि इन दोनों (आकाश और धरती) में अल्लाह के सिवा दूसरे इष्ट-पूज्य भी होते तो दोनों की व्यवस्था बिगड़ जाती। अतः महान और उच्च है अल्लाह, राजासन का स्वामी, उन बातों से जो ये बयान करते हैं। (अल-अंबिया, 22)
ईशवर ने कहा अल्लाह ने अपना कोई बेटा नही बनाया और न उसके साथ कोई अन्य ख़ुदा है। ऐसा होता तो प्रत्येक ख़ुदा अपनी सृष्टि को लेकर अलग हो जाता और उनमें से एक-दूसरे पर चढ़ाई कर देता। महान और उच्च है अल्लाह उन बातों से जो वे बयान करते हैं। (अल-मोमिनून, 91)
ईशवर ने कहा । कह दो, यदि उसके साथ अन्य भी पूज्य-प्रभु होते, जैसा कि ये कहते हैं, तब तो वे सिंहासनवाले (के पद) तक पहुँचने का कोई मार्ग अवश्य तलाश करते। (अलःइस्रा, 42)
इसकी प्रतिचर्या अधिकतर सभ्यताओं को मिली है और मिलती रहेगी। वे अपने उद्देश्य से हटजायेंगे, अपनी दिशाओं से फिर जायेंगे। फिर मानवता के लिए भलाई कि इच्छा रखते हुए भी बुराई का कारण बनेंगे। ईशवर ने कहा। उन्होंने अल्लाह से हटकर अपने धर्म ज्ञाताओं और संसार-त्यागी संतों को अपने रब बना लिए और तदधिक मरयम के बेटे ईसा को (अल्लाह का बेटा भी)- हालाँकि उन्हें इसके सिवा और कोई आदेश नही दिया गया था कि वे अकेले इष्ट-पूज्य की बन्दगी करें, जिसके सिवा कोई और पूज्य नही। उसकी महिमा के प्रतिकूल है वह शिर्क जो ये लोग करते हैं। (अल-तौबा, 31)
इस्लाम विश्व व्याप्त धर्म है, जो हर समय और स्थान, हर भाषा और जात, हर रंग और वंशज की सुधार के लिये आया है। ईशवर ने कहा। हमने तो तुम्हें सारे ही मनुष्यों को शुभ-सूचना देनेवाला और सावधान करनेवाला बनाकर भेजा, किन्तु अधिकतर लोग जानते नहीं। (सबा, 28)
ईशवर ने कहा । बडी बरकतवाला है वह जिसने यह फ़ुरक़ान अपने बन्दे पर अवतरित किया, ताकि वह सारे संसार के लिये सावधान करनेवाला हो। (अल-फ़ुरक़ान, 1)
ईशवर ने कहा। कहो, ऐ लोगों । मैं तुम सबकी ओर उस अल्लाह का रसूल हूँ, जो आकाशों और धरती के राज्य का स्वामी है। (अल-आराफ़, 158)
ईशवर ने कहा। हमने तुम्हें सारे संसार के लिये सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है। (अल-अंबिया, 107)
इस्लाम ऐसा स्थिर सिद्धांत लेकर आया है स्थितियों के परिवर्तन से नही बदलता, और न्याय, सत्य, भलाई पर आधारित ऐसे नियम (शरिअत) लेकर आया है, जो हर समय और स्थान में मानवीय प्रकृती के मुनासिब है। इसका कारण केवल यह है कि यह नियम उस ईशवर द्वारा है, जो सारे जीव के लाभ और सुधार का ज्ञान रखता है। ईशवर ने कहा। क्या वह नही जानेगा जिसने पैदा किया। वह सूक्ष्मदर्शी, ख़बर रखनेवाला है। (अल-मुल्क, 14)
इसी प्रकार इस्लाम धर्म लोगों कि किसी विशेष जात, रंग या गिरोह के लिए नही है। वह गोरे, काले, लाल, पीले सब के लिए है। वह पूर्वकाल, वर्तमानकाल और भविष्य के लोगों के लिए है। कोई भी अनुसंधान वैज्ञानिक, चाहे वह कितना भी महान हो, इस्लाम के रसूल मुहम्मद के लाये हुए धर्म में क्षेत्रिय चरित्र, या सांप्रादायिक और जातिवाद रंग नही पाता है। यह खुला सबूत है कि मुहम्मद का लाया हुआ संदेश विश्व व्याप्त है, जो किसी विशेष गिरोह या समूह का पक्षपात नही करता क्योंकि इस्लाम के उपदेश, संस्कार और आचार सब किसी भी काल के हर मानव के लिए उपयुक्त है।
यह कहना संभव नही है कि न्याय या उच्च चरित्र किसी समूह या समय के लिए उपयुक्त नही है। यह इस्लाम धर्म की विशेषता है। कुछ अन्य धर्मों में क्षेत्रिय, सांप्रादायिक या जातिवाद चरित्र साफ नज़र आता है। उदाहरण के रूप मे यहूद है। जब वे अपने धर्म के अतिरिक्त किसी और धर्म का अनुपालन करने वाले से व्यवहार करते हैं, तो ईशवर ने उनके चरित्र के बारे में यह विवरण किया है। और किताबवालों में कोई तो ऐसा है कि यदी तुम उसके पास धन-दौलत का एक ढेर भी अमानत रखदो तो वह उसे तुम्हे लौटा देगा। और उनमें कोई ऐसा है कि यदि तुम एक दीनार भी उसकी अमानत में रखो, तो जब तक कि तुम उसके सिर पर सवार न हो, वह उसे तुम्हें अदा नही करेगा। यह इसलिए कि वे कहते हैं, उन लोगों के विषय में जो किताबवाले नही हैं, हमारी कोई पकड़ नही। और वे जानते-बूझते अल्लाह पर झूठ गढ़ते हैं। (आले-इमरान, 75)
मानव की ओर इस्लाम की दृष्टी यह है कि ईशवर ने मानव को धरती पर उत्तरधिकार और पुनर्निर्माण के लिए पैदा किया है। ईशवर ने कहा। उसी ने तुम्हे धरती से पैदा किया और उसमें तुम्हे बसाया । (हूद, 61)
ईशवर ने कहा। वही तो है जिसने तुम्हें धरती में ख़लिफ़ा बनाया । अब जो कोई इन्कार करेगा, उसके इन्कार का वबाल उसी पर है। इनकार करनेवालों का इनकार उनके रब के यहाँ प्रकोप ही को बढ़ाता है, और इनकार करनेवालों का इनकार केवल घाटे में ही अभिवृद्धी करता है। (फ़ातिर, 39)
इस्लाम धर्म के अनुसार हर वह व्यक्ति पापी है, जो मानवता के लिए लाभदायक और धरती के पुनर्निर्माण का ज्ञान प्राप्त न करे। निस्संदेह मुहम्मद को उस समय भेजा गया, जब कि मानवता सांस्कृतिक और वैज्ञानिक मंदता में जीवन यापन कर रही थी। लोग दर्शन, बहस टकरार, धरती के विकास और पुनर्निर्माण के अवतलता में पडे हुए थे। तो मुहम्मद ने मानवता को मुक्ती दिलायी, इस्लाम धर्म (ज्ञान, पुनर्निर्माण और सभ्यता पर आधारित धर्म) के द्वारा उसको सम्मानित बनाया। जिसमें धरती के विकास और आध्यात्मिक विचारों के बीच कोई विवाद नही है। मुस्लिम मनुष्य के भीतर प्रार्थना, पुनर्निर्माण के बीच और आध्यात्मिक जीवन, अपने ईशवर की इच्छा के अनुसार अनुसरण करने के बीच कोई अंतर नही है। बल्की यह सब ईशवर के लिए और उसी के मार्ग में शुमार है। ईशवर ने कहा। कहो, मेरी नमाज़ और मेरी क़ुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सब अल्लाह के लिए है जो सारे संसार का रब है। (अल-अनआम, 161, 162)
इस्लाम के अनुसार नैतिकता प्रार्थना है। बल्की रसूल ने हमे यह सूचना दी है कि आपको भेजे जाने का लक्ष्य नैतिकता को पूर्ण करने में प्रकट होता है। आप ने कहाः मुझे उच्च नैतिकता को पूर्ण करने के लिए भेजा गया है। (इस हदीस को इमाम मालिक ने वर्णन किया है) सभ्यता और प्रसन्नता का मार्ग नैतिकता का मार्ग है, जो उच्च चरित्र और अच्छे कार्य पर प्रेरणा देता है। इस्लाम के अनुसार नैतिकता जीवन के हर भाग में व्यापक है, जैसे मनुष्य का अपने स्वयं के साथ, अपने ईशवर के साथ और अन्य लोगों के साथ व्यवहार है। इसी प्रकार मुस्लिम और काफिर के साथ, छोटे बडे, पुरुष, स्त्री और मित्र शत्रु के साथ व्यवहार पर व्यापक है। व्यवहार, सत्यता, शर्म, मन की स्वच्छता, भलाई कि इच्छा और इसके अतिरिक्त सभी चीज़ों मे इस्लाम ने दया, न्याय, उच्च चरित्र और वीरता के साथ व्यवहार करने का आदेश दिया है। ईशवर ने न्याय महत्व और दुशमनों के साथ भी आवश्यकता का विवरण करते हुए यह कहा। ऐ ईमान लानेवालों । अल्लाह के लिए गवाह होकर दृढ़तापूर्वक, इन्साफ़ की रक्षा करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड दो। इनसाफ़ करो, यही धर्म परायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर है। (अल-माइदा,8)
ईशवर ने अपने रसूल मुहम्मद के संदेश का विवरण करते हुए कहा कि यह संदेश सारे संसार के लिए दयालुता है। ना कि केवल उनलोगों के लिए जो इस पर ईमान लाये, ईशवर ने यह कहा। हमने तुम्हें सारे संसार के लिए सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है। (अल-अंबिया, 107)
नैतिकता इस्लामिक सभ्यता का अलग न होनेवाला अंग और मूल स्तंभ है। यह संभव नही है कि धरती के विकास या किसी और आवश्यकता के कारण मुस्लिम उच्च चरित्र से दूर रहे। निश्चय ईशवर ने अपने रसूल मुहम्मद को अच्छी शिक्षा दी, ताकि वह हर विषय में उच्च चरित्र और नैतिकता का महान रूप हो। ईशवर ने कहा। निस्संदेह तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में एक उत्तम आदर्श है, अर्थात उस व्यक्ति के लिए जो अल्लाह और अन्तिम दिन की आशा रखता हो और अल्लाह को अधिक याद करे। (अल-अहज़ाब, 21)
ईशवर ने अपने रसूल को दयालु, प्रसन्नता के मार्ग की ओर लोगों को मार्गदर्शन करने पर आदर्शवान होने का विवरण करते हुए यह कहा। तुम्हारे पास तुम्ही में से एक रसूल आ गया है। तुम्हारा मुश्किल में पड़ना उसके लिए असहय है। वह तुम्हारे लिए लालायित है। वह मोमिनों के प्रति अत्यन्त करुणामय, दयावान है। (अल-तौबा-128)
इस्लाम धर्म में कोई ऐसी मिथ्या बाते नही हैं जिसके प्रति प्रश्न करना संभव ना हो। या कोई ऐसा रहस्य नही है जिसके प्रति विचार असंभव हो। बल्की ईशवर ने अपनी निशानियों, जीव और सारे समूहों में विचार करने का आदेश दिया है। ईशवर ने कहा। जो खडे, बैठे और अपने पहलुओं पर लेटे अल्लाह को याद करते हैं, और आकाशों और धरती की संरचना में सोंच-विचार करते हैं। (वे पुकार उठते हैं) हमारे रब। तूने यह सब व्यर्थ नही बनाया है। महान है तू, अतः तू हमें आग की यातना से बचालें । (आले-इमरान, 191)
ईशवर ने कहा। इसी तरह हम उन लोगों के लिए खोल-खोल कर निशानियाँ बयान करते हैं जो सोंच-विचार से काम लेना चाहें। (यूनुस, 24)
ईशवर ने कहा। स्पष्ट प्रमाणों और ज़बूरों (किताबों) के साथ। और अब यह नसीहत तुम्हारी ओर हमने अवतरित की, ताकि तुम लोगों के समक्ष खोल-खोल कर बयान कर दो, जो कुछ उनकी ओर उतारा गया है, और ताकि वे सोंच-विचार करें। (अल-नहल, 44)
ईशवर ने कहा । क्या उन्होंने अपने आप में सोच-विचार नही किया। अल्लाह ने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है सत्य के साथ और एक नियत अवधि ही के लिए पैदा किया है। किन्तु बहुत से लोग तो अपने प्रभु से मिलन का इन्कार करते हैं। (अल-रूम, 8)
ईशवर ने कहा । ये मिसालें लोगों के लिए हम इसलिए पेश करते हैं कि वे सोंच-विचार करें। (अल-हश्र, 21)
बल्कि ईशवर ने हमें यह सूचना दी कि ज्ञान केवल ख्यालों का नाम नही है। बल्कि उसका प्रमाणों पर आधारित होना ज़रूरी है। ईशवर ने कहा। कहो, यदि तुम सच्चे हो तो अपने प्रमाण पेश करो। (अल-बक़रा, 111)
इस्लाम धर्म में ऐसे कोई रहस्य नही है, जिसको कोई न जानता हो। या ऐसी कोई मिथ्या बातें नही है, जिसका कोई साधन प्राप्त ना कर सकता हो।
आंतरिक शांति यानी मानव की आंतरिक प्रसन्नता और आधुनिक सभ्यता में अधिकतर लोगों को भ्रम में रखनेवाले आंतरिक संघर्ष से मुक्ति दिलाना है। इस प्रकार कि मानवीय विचार में संसार और परलोक का जीवन शांति के साथ व्यतीत हो। प्रार्थना, कार्य और पुनर्निर्माण के कार्योन्मुख हो। आध्यात्मिक और भौतिक जीवन का संबंध हो, ज्ञान और धर्म का संगम हो। निश्चय इस्लामिक सभ्यता में आंतरिक शांति एकीकरण के सिद्धांत से निकलने वाला खुला संकेत है, जो मुस्लिम के मन में पैदा होनेवाली हर चीज़ को सरलता के साथ इकट्ठा करता है। इस्लाम धर्म में संसार स्वयं अपने आप कोई लक्ष्य नही है। बल्कि वह परलोक के लिए खेती और पुल के समान है। यह संदेश हमें ईशवर कि इस वाणी में मिलता है । जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है, उसमें आख़िरत के घर का निर्माण कर और दुनिया में से अपना हिस्सा न भूल और भलाई कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ भलाई की है, और धरती में बिगाड़ मत चाह। निश्चय ही अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को पसन्द नही करता। (अल-क़सस, 77)
ईशवर की इस वाणी में भी मिलता है। फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो धरती में फैल जाओ और अल्लाह का उदार अनुग्रह (रोज़ी) तलाश करो, और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करते रहो, ताकि तुम सफल हो। (अल-जुमुआ, 10)
यानी जब नमाज़ पूरी हो जाये, तो अपने सांसारिक कार्य कि ओर निकल जाओ। शर्त यह है कि वह कार्य हलाल हो। आप इस कार्य में प्रेरणा के साथ ईशवर कि इच्छा तलाश करते हुए लगे रहे। जैसा कि रसूल ने अपने एक साथी से कहाः आप ईशवर की इच्छा कि तलाश के साथ जो कुछ भी धन खर्च करोगे आपको उस पर पुण्य मिलेगा, यहाँ तक कि वह खाना, जो आप अपनी पत्नी के मुँह में डालते हो। (इस हदीस को इमाम मालिक ने वर्णन किया) यानी आप अपनी पत्नी के मुँह में जो खाना (भोजन) डाल रहे हो उसपर भी आपको पुण्य मिलेगा। इस्लाम धर्म में संसार और परलोक के बीच कोई अंतर नही है। लेकिन शर्त यह है कि हम परलोक को छोडकर केवल संसार में ही अपना मन लगालें। जैसा कि ईशवर ने कहा। ऐ ईमान लानेवालों। तुम्हारे माल तुम्हें अल्लाह कि याद से ग़ाफिल न करदें और न तुम्हारी सन्तान ही। जो कोई ऐसा करे तो ऐसे ही लोग घाटे में रहनेवाले हैं। (अल-मुनाफ़िकून, 9)
ईशवर ने यह भी कहा। जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है, उसमें आख़िरत के घर का निर्माण कर और दुनिया में से अपना हिस्सा न भूल, और भलाई कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ भलाई की है। (अल-क़सस, 77)
कार्य के प्रति, पत्नी के प्रति प्रेम, और अपनी संतान के साथ खेल-कूद और उनका ध्यान रखना, इसके अतिरिक्त अन्य चीज़ें शरिअत के सीमाओं के भीतर धर्म में और ईशवर के रसूल की मार्गदर्शनी में व्यापक है। शर्त यह है कि इसका लक्ष्य ईशवर की इच्छा है। ईशवर ने कहा। कहो, मेरी नमाज़ और मेरी क़ुरबानी और मेरा जीना और मेरा मरना सब अल्लाह के लिए है जो सारे संसार का रब है। (अल-अनआम, 162)
सारा जीवन ईशवर के लिए है। यहाँ तक कि जब आशय साफ हो, तो शारीरिक आवश्यकताएँ को पूरा करना भी ईशवर का अनुपालन करने के समान है।
बाहय शांति बन्धुओं और अजनबियों के साथ, मित्र और शत्रु के साथ (अच्छा व्यवहार है) बल्कि मुस्लिम का अपने किसी भाई के लिए सबसे पहला अभिवादन यह हैः अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातुहु (तुम पर ईशवर द्वारा शांति और दया हो) सारे धर्म सुरक्षित और प्रसन्न नही रहे, जिस प्रकार कि इस्लामिक शासन में प्रसन्न थे। कुछ मुसलमानों के अधः पतन के कारण संसार को कितना अधिक घाटा हुआ। ईशवर ने कहा। ऐसा ना हो कि एक गिरोह कि शत्रुता, जिसने तुम्हारे लिए प्रतिष्ठित घर का रास्ता बन्द करदिया था, तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम ज़्यादती करने लगो। हक़ अदा करने और ईश-भय के काम मे तुम एक-दूसरे का सहयोग करो और हक़ मारने और ज़्यादती के काम में एक-दूसरे का सहयोग ना करो। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही अल्लाह बडा कठोर दण्ड देनेवाला है। (अल-माइदा, 2)
इस्लामिक सभ्यता अपने अनुयायियों पर यह अधिरोपण करती है कि वे पवित्र मन और साफ दिल वाले हो। ईशवर ने मुस्लिमों की प्रार्थना का विवरण करते हुए यह कहा। और (इस माल में उनका भी हिस्सा है) जो उनके बाद आए, वे कहते हैं, ऐ हमारे रब। हमें क्षमा करदे और हमारे उन भाइयों को भी जो ईमान लाने मे हमसे अग्रसर रहे और हमारे दिलों मे ईमानवालों के लिए कोई विद्वेष न रख। ऐ हमारे रब। तू निश्चय ही बडा करुणामय, अत्यन्त दयावान है। (अल-हश्र, 10)
ईशवर ने कहा। और मुझे उस दिन रुसवा न कर जब लोग जीवित करके उठाए जाएँगे। जिस दिन न माल काम आयेगा और न औलाद, सिवाय इसके कि कोई भला-चंगा दिल लिए हुए अल्लाह के पास आया हो। (अल-शुअरा, 88,89)
रसूल ने कहाः आपस में घृणा, जलन और एक दुसरे के विरोध में बुरी चाल न चलो। ईशवर ने भक्तों आपस में भाई-भाई बनजाओ। मुस्लिम के लिए अपने किसी मुस्लिम भाई से तीन दिन से अधिक बात ना करना शोभा नही देता। इस प्रकार कि वह इससे मुँह मुडे और यह उससे मुँह मुडे। इन दोनों में सबसे अच्छा व्यक्ति वह है जो अभिवादन (सलाम) से प्रारंभ करे (इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने वर्णन किया है) आप ने आपसी प्रेम और दयालुता से प्रेरित करते हुए यह कहाः जिस महान प्रभु के हाथ में मेरी जान है उसकी क़सम, तुम स्वर्ग में उस समय तक प्रवेश न कर सकोगे जब तक कि तुम ईमान ना लाओ। तुम उस समय तक ईमान वाले न बनोगे जबतक कि तुम आपस में एक दूसरे के साथ प्रेम न करो। क्या मै वह बात तुम्हें न बताऊँ जो तुम्हारे लिए आपसी प्रेम का कारण बनती हो। तुम आपस में सलाम को फैलाओ। (इस हदीस को इमाम तिर्मिज़ी ने वर्णन किया है) ईशवर के रसूल से यह प्रश्न किया गया है कि लोगों में सबसे अधिक सर्वश्रेष्ठ कौन है। आप ने कहा हर वह व्यक्ति जिसका मन पवित्र हो और ज़बान सच्ची हो। लोगों ने कहाः सच्ची ज़बान वाले को तो हम जानते हैं, लेकिन यह पवित्र मन वाला कौन है। आप ने कहाः धर्मपरायणता और उच्च नैतिकता रखनेवाला वह व्यक्ति है जिसके मन में न पाप है, न अन्याय है, न घृणा और न जलन है। (इस हदीस को इब्ने माज़ः ने वर्णन किया है)
इस्लामिक सभ्यता आध्यात्मिक विचार लेकर आयी। साथ-साथ उसने भौतिकवाद को नही भूला और न छोडा। निश्चय ही ईशवर ने मानव को आत्मा और भौतिक सामाग्री से पैदा किया। मानव के जीवन के भौतिक और आध्यात्मिक दोनों भागों के लिए हर तरह के साधन से सहायता की। किन्तु शरीर के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया जिसमें वह धरती पर रहता है। इसी प्रकार ईशवर ने आध्यात्मिक भाग के लिए आकाशीय प्रकाशना मानव के लिए अपने रसूलों द्वारा अवतरित की, ईशवर ने आत्मा और भौतिक सामाग्री से मानव कि सृष्टी के बारे में यह कहा। याद करो जब तुम्हारे रब ने फ़रिशतों से कहा, मैं सड़े हुए गार की खनखनाती हुई मिट्टी से एक मनुष्य पैदा करनेवाला हूँ। तो जब मैं उसे पूरा बना चुकूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना। (अल-हिज्र, 28, 29)
आत्मा और शरीर दोनों मिलीझुली चीज़ें हैं, जो एक दूसरे से मृत्यु तक भिन्न नही होती। इनमें से हर एक कि अपनी-अपनी आवश्यकताएँ हैं। शरीर खाना-पानी और वस्त्र की आवश्यकता रखता है। अगर किसी एक भाग में कमी हो तो सारा शरीर इससे प्रभावित हो जाता है। अगर मानव भोजन में कमी करें तो आप उसको कमज़ोर व निर्बल पायेंगे जो सुखी जीवन बिताने से असहाय होगा। यही हाल खाने और पीने का भी है।
शरीर कि आवश्यकताओं में से किसी एक में भी कमी का प्रभाव सारे शरीर पर होगा, जिससे मानव जीवन-यापन करने से निर्बल होगा, और शरीर के दूसरे भाग सुखी जीवन-यापन करने में सहायक न होंगे। आत्मा की भी कुछ आवश्यकताएँ हैं। आत्मा प्रेम, दया, त्याग के बिना जीवित नही रह सकती। आत्मा उस ईशवर को प्राप्त किये बग़ैर कैसे आश्रय में आये। मानव जब अपनी आत्मा की आवश्यकताएँ पूरी करने में कमी करे, तो वह बिल्कुल उस मानव के समान है जो खाने-पीने में कमी करता हो। मानव को कैसे सुख मिलेगा और कैसे उसकी स्थिति सुधर जायेगी, जबकि उसका दूसरा भाग(आत्मा) घायलों से पीडित हो। अफ़सोस की बात है कि पश्चिमी सभ्यता आत्मा का सुख भूल गयी। इसी कारण वह संपूर्ण सुविधाओं के होते हुए भी इस संसार में सुखी नही है। आधुनिक सभ्यता शरीर और भौतिकवाद की सेवा के लिए सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन वह यह भूल गयी, या भूलना चाहती है कि आत्मा के बिना शरीर को प्रसन्नता, सफलता और सुख, बल्कि वास्तविक रूप से सभ्यता भी उपलब्ध नही है।
यह बात ज्ञात है कि मानवीय अधिकारों का उपयुक्त होना किसी भी देश के नियम और अपने वासियों के अधिकारों की सुरक्षा व स्वतंत्रता का ध्यान रखने का ज्ञान प्राप्त करने में मानक है। इसी प्रकार अधिकारों का उपयुक्त होना वासियों कि जागरुक्ता और इन अधिकारों से लाभ उठाने कि सीमा के लिए भी मानक है। बल्कि लोकतंत्र प्रणाली का सब से महत्वपूर्ण भाग मानवीय अधिकार का ध्यान रखना है।
इस्लामिक सभ्यता ने मानवीय अधिकार के प्रति वास्तविक रूप में एक अनोखा नमूना पेश किया है। यही इस्लामिक सभ्यता की महानता है कि वह केवल निनाद (नारा) नही है। इसी कारण इस्लाम में सब से अधिक मानवीय अधिकारों को सर्वश्रेष्ठ बनानेवाली कुछ चीज़े वह है, जो निम्न लिखित है।
इन अधिकारों का स्त्रोत इस बात पर आधारित है कि सरदारी और संप्रभुता ईशवर के लिए है। ईशवर ने कहा। निर्णय का सारा अधिकार अल्लाह ही को है, वही सच्ची बात बयान करता है और वही सबसे अच्छा निर्णायक है। (अल-अनआम, 57)
जिस प्रकार जीव की ओर देवत्व दृष्टि है, उसी प्रकार अधिकार की ओर इस्लामिक नियम दृष्टि रखता है और लाभ दायक चीज़ों का ध्यान रखता है।
स्थिरताः समय के बदलने से और परिस्थितियों में परिवर्तन से यह अधिकार नही बदलते।
परोपकार के स्थान से अधिकारों के निकलने ध्यान रखनाः इस्लाम में अधिकार उस स्थान से निकलते हैं, जिसमें कि भक्त ईशवर के डर के सामने होता है। यह वह स्थान है जिसके प्रती रसूल ने यह कहाः तुम ईशवर की इस प्रकार से प्रार्थना करो कि तुम उसको देख रहे हो। अगर तुम उसको देख ना पाओ, निस्संदेह वह तो तुम्हें देख रहा है। (इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने वर्णन किया।
मानवीय अधिकार इस धर्म की प्रकृति के बीच पूर्ण रूप से एकताः इस्लाम ने अधिकारों को ऐसे ही नही छोड़ दिया, बल्कि इस्लामिक नियम और लक्ष्य ने सीमाओं में इनको सीमित रखा। उच्च चरित्र और नैतिकता से संबंधित रखा। इन चरित्र का उल्लंघन अधिकार का उल्लंघन माना। अंत में इनको धर्म से जोडा और इनका स्त्रोत देवत्व जाना। इसी कारण मुस्लिम व्यक्ति पर यह चीज़ें अधिरापण है ना कि केवल अधिकार। इस्लाम में अधिकारों को पूर्ण रूप से सुरक्षित रखा गया, जो इस धर्म कि देवत्व प्रकृति के अनुसार है।
इस्लाम में मानवीय अधिकार इस बात पर आधारित है कि मानवीय समाज की संप्रभुता, मानवीय व्यक्तियों के संप्रभुता की शाखा है, ना कि इसका विपरीत है। जैसा कि संसारिक नियमों की स्थिती है। ईशवर ने कहा। इसी कारण हमने इसराईल की संतान के लिए यह अध्यादेश पारित कर दिया गया था जिसका उन्हें ध्यान रखना है कि किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इन्सानों की हत्या कर डाली। और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, मानो सारे इनसानों को उसने जीवन दान किया। उनके पास हमारे रसूल स्पष्ट प्रमाण ला चुके हैं, फिर भी उनमें बहुत-से लोग धरती में ज़्यादतीयाँ करनेवाले ही हैं। (अल-माइदा, 32)
इस्लाम धर्म दूसरे अन्य धर्म के मुक़ाबले बहुत समय पहले मानवीय अधिकारों का विवरण करता हैः इस्लाम धर्म ने मानव के लिए जिन अधिकारों की ज़मानत दी है। उनमें आज तक बौद्धिक संघर्ष या क्रांती और दावेदारी नही हुई, जिस प्रकार कि लोकतंत्र और उसके विकास के कारणों के भीतर मानवीय अधिकारों के इतिहास कि परिस्थिती है। जैसा कि फ्रांस, अमेरिका और अन्य देशों का हाल है। निश्चय मानवीय अधिकार के नियम और आदेश ईशवर द्वारा प्रकाशन हुए हैं। इन अधिकारों की ओर पहले से न कोई विचार हुआ था, न उसकी आकांक्षा किसी मन में थी, और न इनको प्राप्त करने में कोई संघर्ष हुआ था।
यह अधिकार वास्तविक है। जीवन से संबंधित है। और मानवीय आवश्यकताओं को पूर्ती करनेवाले हैं। उन अधिकारों के विपरीत जो अन्य धार्मिक नियमों मे हैं। वे सब दर्शन के रंग से रंगे हुए हैं।
कुछ वह बातें जिससे इस्लामिक नियम मानवीय अधिकार के प्रती विशेषता रखते हैं। इनमे सबसे सर्वश्रेष्ठ अधिकार यह हैः माता-पिता और बन्धुओं का अधिकार, संतान पर, रिश्तेदारी के अधिकार, भ्रूण के अधिकार, धार्मिक और सांसारिक शिक्षा में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार। वैध आय और ब्याज़ से रुकने का अधिकार, भलाई की ओर बुलाने का, अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने का अधिकार है।
मानवीय अधिकारों के मुद्दे में वास्तविक रूप से इस्लामिक नियम अन्य नियमों के विपरीत मानवीय सम्मान और ईशवर पर विश्वास की भावनाओं को प्रोत्साहित करने पर आधारित है। और सांसारिक जीवन में पूर्ण रूप से अनुरूपता के अनुसार मानवीय लाभ के लिए ब्रह्माण्ड की हर चीज़ को ईशवर द्वारा मानव के लिए अनुयायी बनाने की परिभाषा पर आधारित है। इस्लाम को इस बात से की चिंता नही थी कि इतिहास में किसी भी समय ऐसी सभ्यता प्रकट नही हुई जो (निहित) स्वार्थ से दूर होकर मानवीय अधिकार को उपयुक्त बनाती है। वरना कितने ऐसे नारे हैं, जिनसे आवाज़ें बुलन्द होती है और बैनर लगाये जाते है। लेकिन जब इन नारों को बुलन्द करनेवाले संदेह के स्तर निकट हो, तो इन की आड़ मे उनकी छुपी हुई आशय का प्रकट हो जाना बहुत कठिन है।
इस्लाम के रसूल मुहम्मद के प्रवेश होने के बाद मानवता को सामान्य रूप से सभ्यता उपलब्ध हुई। फिर भी कुछ लोग मुसलमानों की प्रस्तुत परिस्थिती और उनके निम्न वर्ग होने के कारण के प्रति प्रश्न करते हैं, हालांकि इस्लाम ने उनके लिए उच्च सभ्यता प्रदान की है। लेकिन यह आश्चर्य जनक प्रश्न उस समय दूर हो जाता है, जब हमे यह ज्ञान हो जाये कि मुसलमानों की प्रस्तुत परिस्थिती उनके धर्म कि वास्तविक रूप से प्रतिनिधी नही करती है। अधिकतर मुस्लिम जब अपने धर्म, अपनी पुस्तक और अपनी रसूल की वाणी में वर्णन किये हुए नियमों से दूर हो गये, तो वे मंदता से पीडित हो गये। वरना तो यह संसार सारी मानवता के लिए इस्लामी सभ्यता से अधिकतर किसी अन्य सभ्यता को प्रसन्न नही देखा है। इतिहास के चरित्र पढना और लेखकों की बातें सुनना, (यहाँ तक कि वह लेखक जो मुसलमान नही है) इस विषय को जानने के लिए काफी है कि मुसलमानों के अधः पतन से संसार का कितना नष्ट हुआ है।