क्या धर्म आवश्यक है?
मनुष्य किसी भी स्थिति में धर्म के बिना जीवित नही रह सकता है।
जैसा कि मनुष्य एक सामाजिक है जो समाज से दूर रहकर अकेला जीवित नही रह सकता है, इसी प्रकार से वह अपने स्वभाव के अनुसार धार्मिक है, जो धर्म के बिना अच्छा जीवन बिता नही सकता है परन्तु धर्म मनुष्य के लिए स्वभाविक वृत्ति है।
इसका सबसे बडा सबूत यह है कि मुसीबत और कष्ट के समय मनुष्य ईश्वर की ओर शरण लेता है, ईश्वर ने कहा फिर जब ये कश्ती में सवार होते हैं तो खुदा को पुकारते (और) ख़ालिस उसी की इबादत करते हैं लेकिन जब वह उन वो निजात देकर खुश्की पर पहुंचा देता है, तो झट शिर्क करने लग जाते हैं। (अल अनक्बुत, 65)
जिस तरह से कि किसी पदार्थ का बनाने वाला उसके बारे में अधिक मालुमात रखता है, इसी प्रकार से प्रजापित ईश्वर अपनी प्रजा और उनकी आवश्यकताओं का ज्यादा ज्ञान रखता है। भला जिसने पैदा किया, वह बे-ख़बर है? वह तो छिपी बातों का जाननेवाला और (हर चीज़ से) आगाह है। (अल मुल्क, 14)
और इसलिए कि प्रजापति ईश्वर करुणावान और दाता है, उसने मानवता के लिए धार्मिक नियम लागू किये है ताकि वे सुखी रहें और उनका जीवन समायोजित हो ईश्वर ने कहा मोमिनों! खुदा और उसके रसूल का हुक्म कूबूल करो, जब कि खुदा के रसूल तुम्हें ऐसे काम के लिए बुलाते है, जो तुम को जिंदगी (हमेशा की) बख्शता है और जान रखो कि खुदा आदमी और उसके दिल के दर्मियान हायल हो जाता है और यह भी कि तुम सब उसके रु-ब-रु जमा किये जाओगे।(अल अन्फाल, 24)
और इसी कारण जो लोग वृत्ति का विरोध करते हैं और ईश्वर के वजूद के इंकार का दावा करते हैं वे स्वयं अपने झूठ और ग़लत को जानते है, ईश्वर ने कहा और बे-इंसाफ़ी और घमंड से उन से इंकार किया, लेकिन उन के दिल उन को मान चुके थे, सो देख लों कि फ़साद करने वालों का अंजाम कैसा हुआ।(अल न्म्ल, 14)
कष्ट और मुसीबत के समय वे इसका ज्यादा खुल कर अनुभव करते है, ईश्वर ने कहा। कहो, (काफिरे!) भला देखो तो अगर तुम पर खुदा का अज़ाब आ जाए या कियामत आ मौजूद हो, तो क्या तुम (ऐसी हालत में) खुदा के सिवा किसी और को पुकारोगे? अगर सच्चे हो (तो बताओ) (नहीं) बल्कि (मुसीबत के वक़्त तुम) उसी को पुकारते हो, तो जिस दुख के लिए उसे पुकारते हो, वह अगर चाहता है, तो उसको दूर कर देता है और जिनको तुम शरीक बनाते हो, (उस वक्त) उन्हें भूल जाते हो।(अल अनआम, 41- 42)
और ईश्वर ने कहा और जब इंसान को तक्लीफ़ पहुंचती है, तो अपने परवरदिगार को पुकारता है (और) उस की तरफ़ दिल से रुजूअ करता है। फिर जब वह उसको अपनी तरफ़ से कोई नेमत देता है, तो जिस काम के लिए पहले उस को पुकारता है, उसे भूल जाता है और खुदा का शरीक बनाने लगता है, ताकि (लोगों को) उस के रास्ते से गुमराह करे। कह दी कि (ऐ काफ़िरे नेमत) अपनी ना-शुक्री से थोडा-सा फायदा उठा ले, फिर तो तू दोज़खियों में होगा।(अल जुमृ, 8)
सारी मानवता ईश्वर की ओर से सृष्टि की हुई अपनी वृत्ति के अनुसार एक ऐसे ईश्वर की पूजा करने पर सहमत है, जिसके हाथ में लाभ और नष्ट हो, वह जो चाहे करता हो और जिसका चाहे निर्णय लेता हो, ईश्वर ने कहा और अगर खुदा तुम को कोई सख्ती पहुंचाए, तो इस के सिवा उस को कोई दूर करने वाला नही और अगर नेमत (व राहत) अता करे तो (कोई उसको वाला नहीं) वह हर चीज़ पर क़ादिर है।(अल अनआम, 17)
और ईश्वर ने कहा खुदा जो अपनी रहमत (का दरवाज़ा) खोल दे तो कोई उसको बन्द करने वाला नही और जो बंद कर दे तो उस के बाद कोई उस को खोलने वाला नहीं। (फतिर, 2)
मनुष्य में निहित दो शक्तियाँ है, ज्ञान की शक्ति और संकल्प की शक्ति, मनुष्य इन दोनों शक्तियों को प्राप्त करने में अपने प्रयत्न के अनुसार अपना लक्ष्य पा-लेता है और इसी प्रकार से मनुष्य की प्रसन्नता की भी यही स्थिति है। पहली शक्ति यानी ज्ञान की शक्ति है, मनुष्य के ईश्वर का, उसके नामों और उसके गुण का ज्ञान रखने, ईश्वर के आदेश और अनादेश के पालन करने, अच्छे चरित्र अपनाने, संतों के मार्ग पर चलने और स्वामियों के स्थान को पाने का तरीका, और इस मार्ग में चलने के लिए जिस ज्ञान की ज़रुरत है, यानी मानवता के मानसिक गहराइयों, बीमारियों, गंदगियों, और दुश्मनों पर ग़ालिब आने, अपने और अपने ईश्वर के बीच धर्मान्तरित विषय पर काबू पाने का ज्ञान (देवत्व नैतिकता में मानसिक बुलंदी और शुद्दता, जो मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ धैर्यवान बनाते है और हवस, संदेह और लौकिकता की बकवास से दूर करते है, ऊँचा लक्ष्य है) मनुष्य इस ज्ञान के प्राप्त करने में जिस प्रकार से प्रयत्न करेगा उसी के अनुसार उसका ईश्वर के पास स्थान और सम्मान होगा, बल्कि उसी के अनुसार जीवन में उसको प्रसन्नता प्राप्त होगी और भविष्य जीवन की बात ही और है।
बल्कि ज्ञान की यह शक्ति वास्तव में संकल्प की शक्ति का हत्यार है, जिससे ज्ञान की शक्ति में परिपक्व और स्थिरता उपलब्ध होती हैं। मोमिनो! खुदा और उसके रसूल का हुक्म क़ुबूल करो जब कि खुदा के रसूल तुम्हें ऐसे काम के लिए बूलाते हैं, जो तुम को ज़िंदगी (हमेशा की) बख्शता है।(अल अन्फल, 24)
यही वह नास्तिकता के सिध्दांत हैं. जो आत्मा तो क्या शरीर को सुख देने से अपने दिवालिया का खुल्लम खुल्ला प्रकट करते हैं। और निश्चित रुप से चाहे ये लोग आपस मे मीठी मीठी बातें कर ले फिर भी मनुष्य को सच्ची प्रसन्नता देने से असहाय हैं।
बडी बडी मुसीबत और आपदाएँ के समय मनुष्य किसकी ओर शरण लेता है? निश्चित रुप से वह किसी बलिष्ठ छाया की तलाश करता है, वह ईश्वर की ओर शरण लेता है, जहाँ उसके लिए शक्ति, आशा, उम्मीद, सब्र, विश्वास और अपनी स्थिति को ईश्वर की ओर सौपने की शक्ति मिलती है। ईश्वर ने कहा (यानी) जो लोग ईमान लाते और जिन के दिल खुदा की याद से आराम पाते हैं. (उन को) और सुन रखो-कि-खुदा की याद से दिल आराम पाते हैं।(अल राद, 28)
जब मनुष्य अन्याय की आग में जलता है, और उसका कडवापन महसूस करता है, तो वह यह विश्ववास रखता है कि इस ब्रह्माण्ड का एक ईश्वर है जो कुछ समय बाद ही सही पीडित की सहायता करता है, और यह कि भविष्य जीवन है जिसमें हर मनुष्य को अपने किये का पूरा-पूरा बदला मिलेगा, जिस दिन अच्छे को अच्छा बुरे को बुरा फल मिलेगा। इस विश्वास से मनुष्य का मन ईश्वर पर अधिक विश्वास और निर्भरता से भर जाता है। ईश्वर ने कहा भला जो शख्य खुदा की खुश्नूदी का ताबेअ हो, वह उस शख्स की तरह खियानत कर सकता है, जो खुदा की ना-खुशी में गिरफ़तार हो और जिसका ठिखाना दोज़ख है और वह बुरा ठिकाना है।(आल इमरान, 162)
उपर युक्त बातों के विपरीत जो मनुष्य ईश्वर के ज्ञान और उस पर विश्वास खो दिया हो, अवश्य रुप से वह हर प्रकार की शक्ति, सुख राहत और प्रसन्नता खो बैठा है, वह दुख और नष्ट के लपेट में जीवित है, उसको मानसिक सुख या शारीरिक आनंद नही है, उसका लक्ष्य हवस को पूरा करना और धन इकट्ठा करना है, वह न अपने वजूद का कोई लक्ष्य जानता है और न अपने जीवन का कोई कारण, बल्कि वह प्रसन्नता की खोज और हवस के पीछे अपना जीवन दुखों में बिताता है, यहाँ तक कि वह पशु-पक्षी, बल्कि उससे भी नीच हो जाता है, ईश्वर ने कहा या तुम यह ख्याल करते हो कि इन में अक्सर सुनते या समझते हैं? (नहीं ये तो चौपायों की तरह के हैं बल्कि उन से भी ज्यादा गुमराह हैं (अल फुरखान, 44)
एक बडे कष्ट ने इस मनुष्य पर आक्रमण किया है, जिसका शिकार बनकर यह आंतरिक दुख और मानसिक कलेश से पीडित हो गया है और जो मेरी नसीहत से मुंह फेरेगा, जिसकी ज़िंदगी तंग हो जाएगी और कियामत को हम उसे अंधा कर के उठाएंगे। (ताहा,124)
कितना ही बडा अंतर है उस मनुष्य के बीच जो अपने ईश्वर को जाने, उसकी महानता का ज्ञान प्राप्त करे, उसके आदेशों का पालन करें, उसकी ईच्छाओं के प्रकार उपयोग करे, ईश्वर के नियमों को अपनाये. जिस काम के न करने का आदेश है उसका पालन करे, और जिस काम के न करने का आदेश है उससे दूर रहे, मनुष्य यह ज्ञान रखता हो कि हर छोटी बडी और हर समय हर लमह उसको अपने ईश्वर की आवश्यकता है। ईश्वर ने कहा लोगों! तुम (सब) खुदा के मुहताज हो और खुदा बे-परवा, हम्द (व सना) के लायक़ है।(फातिर,15)
और उस मनुष्य के बीच जिसको संदेह और कल्पनाओं ने अप्रसन्नता और कष्टों के अंधेरे मे ढकेल दिया है, वह अंधे की तरह इधर-उधर भटकता रहेगा, उसका मन शक और भ्रम से भर जायेगा, और जब भी प्रसन्नता की खोज की कोशिश करेगा, तो एक के बाद दूसरा मृगतृष्णा ही उसके भाग्य मे होगा, अगर ये वह दुनिया की लज़्जतें प्राप्त कर ले, चाहे वह संसार के ऊँचे ऊँचे स्थान पर ही क्यों न आसन हो जाये। क्योंकि जो ईश्वर को खो दे वह क्या प्राप्त करेगा? और जो ईश्वर को प्राप्त कर ले वह क्या खोयेगा ?