माइकलः हमें पहुँच कर दस मिनट हो चुके हैं, और अब तक राषिद नही आया... बडी आश्चर्यजनक बात है ।
राजीवः हाँ। इस से अन्य समय सीमायें प्रभावित होती है...
कुछ समय बाद राषिद मीटिंग हॉल में प्रवेश करता है, और अपने दोनों मित्रों को प्रणाम करते हुए यह कहता हैः
मुझे आने में देर हो गयी। क्षमा चाहता हूँ। मैं कुछ मुख्य कार्य में व्यस्त था, जिसके कारण मैं समय पर नही पहुँच सका, और इन कार्यो को दूसरे समय पर करना भी संभव नही था।
माइकलः प्रिय राषिदः तुम मुझे यह कहने की अनुमति दो कि अरबी और इस्लामी जाति की यह सामान्य विशेषता है। समय का उनके पास कोई महत्व नही है। क्षमा चाहता हूँ, अगर यह मेरा स्पष्ठ तुम्हे कठोर लगा हो।
राषिदः तुमने जो कुछ कहा, अधिकतर वह सत्य है। वास्तविक रूप से हम मुसलमानों ने अपने-आप के साथ बुरा व्यवहार किया, और अन्य जातियों को अपने प्रति ग़लत सोंचने का आदि बनाया.... लेकिन मैं केवल इस ग़लत व्यवहार को इस्लाम धर्म से संबंधित करने की ग़लती सुधारूँगा ।
माइकलः अगर इस्लाम से इसका संबंध न हो, तो फिर किस से संबंध होगा ?। मेरे विचार के अनुसार समय सारिणी का उल्लंघन करने वाले अधिकतर लोग तुम मुस्लिम देशों के वासी हैं।
राषिदः हमारी जाति और तुम्हारी जाति के बीच दो मुख्य अंतर हैः 1. संस्कृति, 2. वातावरण.... वास्तविक रूप से वातावरण, न कि इस्लाम धर्म इस जैसे व्यवहार का ज़िम्मेदार है।
राजीवः ऐसे कैसे हो सकता है। होना तो यह चाहिए कि तुम्हारे पास धर्म ही संस्कृति का निर्माण करने में मुख्य सहायक हो ?।
राषिदः यह बात भी सही है। लेकिन वास्तविक रूप से आधुनिक काल के अधिकतर मुसलमान अपने धर्म की शिक्षाओं का, या तो अज्ञानी होने के कारण, या लापरवाही के कारण पालन नही करते हैं, और जब मानव पर धर्म व सिद्धांत का प्रभाव कम होता है, तो वह अपने आस-पास के वातावरण से प्रभावित हो जाता है।
माइकलः हम जिस विषय के बारे में चर्चा कर रहे हैं, उसमें वातावरण के प्रभाव का क्या अर्थ ?
राषिदः मैं इसका विस्तार करता हुँ, तुम लोग (उदाहरण के रूप से) प्राचीन काल से अपने देशों में कठोर ठण्डे मौसम में जीवन-यापन करते हो। जीवित रहने के नियमों ने तुम पर यह अनिवार्यता कर दिया है कि तुम इस जैसे मौसम के प्रभाव को ध्यान में रखो। किन्तु तुम लोग सर्दी के मौसम के लिए पहले से अनाज इकट्ठा कर लेते हो, और सर्दी का मुक़ाबला करने के लिए तैयारी करते हुए लकड़ियाँ या इंधन जमा करलेते हो... इसी प्रकार किसी भी चीज़ के प्रति विचार करने से पहले-पहले वातावरण तुम्हारे लिए यह अनिवार्य कर देता है कि तुम ऐसे व्यवहार की विधि अपनाओ जिसमें संतुलन हो और समय-सारिणी का ध्यान हो।
हमारे देश शीतोष्ण कटिबंध, या गर्म समशीतोष्ण प्रांत में आते है। इन में साल भर अधिकतर मौसमों में वातावरण संतुलित होता है। इसी प्रकार वहाँ धन और फसलों की प्रचुरता है। किन्तु थोड़ा सा प्रयास और थोडा-सा ध्यान इन देशों में जीवन की निरंतरता के लिए काफी है। इसी का प्रभाव इन देशों के वासियों के प्रभाव पर भी हुवा है। किन्तु वे आराम के आदि हो गये। या तुम इसको सुस्ती और कमज़ोरी भी कह सकते हो। (जिस पर गर्म मौसम भी सहायक होता है) और उनके भीतर यह भावना नही पैदा हुई कि बारिकी के साथ व्यवहार न करने, और समय सारिणी का ध्यान न रखने से उनके जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
राजीवः निस्संदेह मानव पर वातावरण का गंभीर प्रभाव होता है, और इस प्रभाव का मुक़ाबला करने के लिए इससे भी अधिक शक्तिशाली प्रभावी की आवश्यकता होती है। तो क्या इस्लाम धर्म ने इन विषयों की ओर ध्यान न देने के कारण, या इस्लाम धर्म में इनका समाधान करने की क्षमता न होने के कारण, वातावरण के इस नकारात्मक प्रभाव में परिवर्तन नही लाया ?
राषिदः जहाँ तक इस्लाम धर्म में क्षमता न होने की बात है, तो उसके कई कारण है, जिसकी चर्चा करने का यह स्थान नही है। लेकिन सामान्य रूप से यह कहना संभव है कि इस्लाम धर्म ने उन सारी समितियों को संयुक्त बना दिया है, जिन्हों ने इस्लाम धर्म को अपना स्त्रोत माना। इसी प्रकार इस्लाम धर्म का संपूर्ण रूप से अनुसरण करने वाले मुसलमानों के जीवन को संतुलित बनाया, चाहे वह किसी भी समय या स्थान के वासी हो। इस क्षेत्र में कई उदाहरण उपलब्ध है।
माइकलः क्या तुम हमारे सामने इनमें से कुछ उदाहरणों का विवरण करोगे ?
राषिदः विभिन्न उदाहरण हैं। इनमें से एक यह हैः
उमारह बिन ख़ुज़ैमा बिन साबित कहते हैं कि उन्हों ने सत्ताधारी उमर बिन खत्ताब को उनके पिता ख़ुज़ैमह से यह कहते हुए सुनाः तुम्हें अपनी ज़मीन पर खेती करने में क्या आपत्ति है? तो मेरे पिता ने उनसे कहाः मै बूढा आदमी हूँ, कल मेरी मृत्यु हो जायेगी। तो उमर ने उनसे कहाः मेरा तुम्हें यह आदेश है तुम ज़रूर इस ज़मीन पर खेती करो। उमारह कहते हैः मैं ने उमर को मेरे पिता के साथ अपने हाथों से खेती करते हुए देखा। अल्लाह के रसूल के साथी अब्दुल्ला बिन मस्ऊद कहते हैः मैं उस पुरुष से नाराज़ हो जाता हूँ जो खाली बैठा हुवा होता है, न वह अपने संसारिक जीवन के लिए कुछ करता है, और न परलोक के लिए। अब्दुर्रहमान बिन इमाम अबु हातिम राज़ी अपने पिता की जीवन चर्चा के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैः अधिकतर समय ऐसा होता था कि वह भोजन कर रहे होते और मैं उन्हें किताब पढकर सुनाता। वह चल रहे होते और मै पढ़कर उन्हें सुनाता। वह शौचालय के लिए जा रहे होते, और मैं उन्हें पढ कर सुनाता, और किसी विषय की खोज में वह घर में प्रवेश कर रहे होते, और मैं उन्हें पढ कर सुनाता।
राजीवः लेकिन क्या इस्लाम धर्म ने अपनी शिक्षाओं में समय की महत्वता को स्थापित किया है, ताकि किसी भी काल में इस्लाम के अनुसरण करने वाले के लिए यह शिक्षाएँ मार्गदर्शन हों ?
राषिदः हाँ इस्लाम ने समय और उसकी महत्वता को पवित्र ख़ुरआन और रसूल की वाणी में बहुत उच्च स्थान प्रधान किया है। किन्तु पवित्र ख़ुरआन, इस्लाम धर्म के रसूल की शिक्षाओं, और सहाबा व उनके अनुयायियों की आत्म कथा का ज्ञान रखने वाला उसमें केवल समय की महत्वता और प्रत्येक स्थिति में समय की पाबंदी देखेगा। इसका एक उदाहरण यह है कि अल्लाह ने अपनी पुस्तक में कई बार निर्धारित समय की ख़सम खायी। अल्लाह ने कहाः साक्षी है उषाकाल, साक्षी हैं दस रातें। (अल-फ़ज्र, 1-2) अल्लाह ने कहाः साक्षी है रात जब कि वह छा जाये, और दिन जब कि वह प्रकाशमान हो। (अल-लैल, 1-2) अल्लाह ने यह भी कहाः गवाह है गुज़रता समय। (अल अस्र, 1) अल्लाह ने इस बात का संकेत दिया कि अल्लाह के प्रभुत्वशाली होने की निशानियों में से एक निशानी सूर्य और चन्द्र की सृष्टि है, ताकि इससे हमें वर्ष और गणित का ज्ञान हो।
इस्लाम की अधिकतर प्रार्थनाओं में समय की महत्वता को प्रकट किया गया, किन्तु सारी प्रार्थनाएँ प्रारंभ होने से लेकर अंत होने तक समय से संबंधित है। बल्कि प्रत्येक प्रार्थना का निर्धारित समय उसके ठीक होने और ईशवर द्वारा स्वीकार होने की एक शर्त है। इसीलिए इस्लाम धर्म ने इस महत्वपूर्ण क्षेत्र को अधिक महत्व दिया है। वह क्षेत्र समय को सम्मान देने और उसकी पाबंदी करने को सारी प्रार्थनाएँ ईशवर द्वारा स्वीकार होने की एक शर्त माना। उदाहरण के रूप से अल्लाह ने कहाः निस्संदेह ईमानवालों पर समय की पाबन्दी के साथ नमाज़ पढना अनिवार्य है। (अन-निसा, 103) नमाज़ जो कि इस्लाम धर्म का एक स्तंभ है दिन और रात को कई भागों में विभाजित करती है, जिसके लिए निर्धारित समय और स्पष्ट कारण है, यही स्थिति इस्लाम धर्म के अन्य स्तंभों का भी हैः उपन्यास के लिए प्रति वर्ष निर्धारित समय है, जिस के द्वारा मुसलमान अपने दैनिक जीवन को निर्धारित समय-सारिणी से जोड़ लेता है। इसी प्रकार ज़कात (दान) एक सामाजिक आर्थिक प्रणाली है, जो निर्धारित समय और विशिष्ट राशि से संबंधित है, और यही स्थिति हम हज यात्रा में भी देखेंगे।
इस्लाम धर्म के रसूल मुहम्मद सल्लेल्लाहु अलैहि व सल्लम की वाणी में समय की महत्वता के कई उदाहरण मिलते हैं। किन्तु इस में समय का बहुत ध्यान रखा गया। रसूल की वाणी की परिस्थिति समय की महत्वता का विवरण करने में पवित्र ख़ुरआन के समान है। रसूल ने निर्धारित समय की पाबंदी करने को उच्च स्थान प्रधान किया, आप ने कहाः मुसलमान अपनी शर्तो को पूरा करते हैं। मीटिंग या बैठक के लिए समय को निर्धारित करना प्रत्येक सदस्य द्वारा अपने आप पर इस समय की पाबंदी करने की शर्त लगाने के समान है। अगर उसने निर्धारित समय की पाबंदी न की, तो अवश्य उसने अपने ऊपर लगाये हुए शर्त के विपरीत व्यवहार किया है। रसूल सल्लेल्लाहु अलैहि व सल्लम ने वादा तोडने को पाखंड का संकेत माना है। आप ने कहाः पाखंड की तीन निशानियाँ हैः जब भी वह बात करता है तो झूठ बोलता है, जब भी वादा करता है तो तोडता है, और जब भी उसको विश्वसनीय बनाया जाता है तो वह विश्वासघात करता है। निर्धारित समय की पाबंदी न करने वाला सदस्य अवश्य रूप से वादा करके तोडा है।
माइकलः समय की महत्वता सारी समितियों और संस्कृतियों के बीच एक संयुक्त मूल्य है तो क्या इस्लाम धर्म ने इस मूल्य में अधिक चीज़ें जोडा है ?
राषिदः इस्लाम धर्म ने समय को उपयुक्त बनाने, व उसका निवेश करने के मूल्य में तीन प्रमुख आयाम जोड़े हैः प्रथमः अवधि। किन्तु समय मानव की अधिक मूल्यवान चीज़ यानी उसकी आत्मा से भी अधिक मूल्यवान चीज़ है। समय को आगे पीछे करना, या बढाना असंभव है। समय जब हाथ से निकल जाता है, तो उसके लौटने की कोई आशा नही रहती। इसीलिए इस्लाम धर्म ने अंतिम अवधि तक, यानी मानव के जीवन के अंत तक समय का सही उपयोग करने पर प्रोत्साहित किया। बल्कि इस्लाम ने तो मृत्यु के बाद वाले जीवन, और परलोक में होने वाले हिसाब-किताब से समय को संबंधित किया। इसी प्रकार इस्लाम ने कठिन और गंभीर स्थितियों में भी समय से पूरा-पूरा लाभ उठाने की मुसलमानों को शिक्षा दी है। रसूल ने कहाः अगर क़ियामत आ जाये, और तुम में से किसी के हाथ में शाख़ हो, और उसको बोने की क्षमता अपने अंदर भी वह पाता हो, तो ज़रूर वह उसको बो दे।
द्वितीयः अनिवार्यताः इस्लाम धर्म ने समय को उपयुक्त बनाने व उसका निवेश करने के मूल्य को मुसलमान के लिए कोई विकल्प नही, बल्कि अनिवार्य माना है। इस सिद्धांत से कि मुसलमान की उम्र (जो मानवीय कार्य के लिए समय अवधि होती है) केवल उसकी विशिष्ट संपत्ति नही है। बल्कि वह तो उसके प्रभु के द्वारा मिला हुवा दान है, ताकि वह अपनी उम्र अच्छे से अच्छे रूप में उन विषयों में बिताये, जिससे उसका प्रभु संतुष्ट होता हो। इस्लाम धर्म ने समय को पूंजी के समान माना, जिसको खर्च करने और उपयोग करने की विधि के प्रति मानव से हिसाब लिया जायेगा, किन्तु इस्लाम के रसूल सल्लेल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः ख़ियामत के दिन चार चीज़ों के प्रति पूछे जाने से पहले-पहले किसी भी मानव के पैर नही हटेंगेः उसकी उम्र के प्रति प्रश्न होगा, किन चीज़ो में उसने अपनी उम्र बितायी?... रसूल ने कहाः दो अनुग्रह ऐसी हैं जिस में अधिकतर लोग धोखे में पडे हुए हैः स्वास्थ्य और रिक्त समय। रसूल ने यह भी कहाः पाँच चीज़ो से अन्य पाँच चीज़ो के आने से पहले-पहले लाभ उठाओः मृत्यु से पहले-पहले जीवन से। बीमारी से पहले-पहले तंदुरुस्ती से। व्यस्तता से पहले-पहले रिक्त समय से। बुढापे से पहले-पहले जवानी से, और ग़रीबी से पहले-पहले मालदारी से लाभ उठाओ। निस्संदेह जब पूँजी अधिक होती है, तो उसका हिसाब भी अधिक होता है। अल्लाह ने कहाः क्या हमने तुम्हें इतनी आयु नही दी कि जिस में कोई होश में आना चाहता तो होश में आ जाता ? (फ़ातिर, 37) और रसूल ने कहाः मैं अल्लाह से उस व्यक्ति के लिए क्षमा चाहता हूँ, जिसकी उम्र को अल्लाह ने बढाते हुए 60 वर्ष तक पहुंचा दि हो। हसन बस्री से नक़ल किया गया कि आप ने कहाः ऐ आदम की संतान। तुम्हारा जीवन तो कुछ दिनों और रातों का नाम है, जब जब दिन समाप्त होता रहेगा, तो तुम्हारे जीवन का कुछ भाग भी समाप्त होता रहेगा।.... जीवन का यह भाग घंटों, मिनटों और क्षणों में भी विभाजित होता है.... जब जब एक-एक मिनट या क्षण समाप्त होता है तो तुम्हारे जीवन का भाग भी समाप्त होता है। किन्तु समय ही जीवन है।
तृतीयः समय के मूल्य का सही उपयोग करने पर मिलने वाला बदला और प्रेरित करनाः समय बाह्य रूप से परिवर्तन होने वाला विषय है। किसी अन्य व्यक्ति की ओर से इस को नियंत्रण करना, और उसका ठीक उपयोग करना असंभव है। इसीलिए इस्लाम ने मुसलमान सदस्य के लिए आंतरिक रूप से प्रेरित करने वाले विषय निर्धारित किया, जिसका महत्व भौतिक विषयों से अधिक है। इस स्थान पर अंतारात्मिकता के रूप से व्यक्तिगत निगरानी का महत्व बढता है, क्योंकि व्यक्तिगत व्यवहार के ठीक होने की दर को नियंत्रित रखने का यही प्रमुख कारण है। इस्लाम ने व्यक्तिगत निगरानी प्रजापति की ओर से हिसाब-किताब का भय रखने, और उसकी ओर से मिलने वाले की पुण्य की आशा रखने में प्रकट होती है। यह वह विषय है जो मुसलमान को अपना समय स्वयं अपने लिए और अपने समाज के लिए लाभदायक चीज़ो में लगाने की ओर प्रेरित करता है।
माइकलः इस धर्म का मामला बडा आश्चर्यजनक है। ..... मानवीय जीवन के प्रत्येक विषय मे हस्तक्षेप करता है, और निजी जीवन में भी मानव के लिए कोई विकल्प नही छोडता है।
राषिदः नही, नही। इस्लाम धर्म तो विविधता और विकल्पों के लिए कई अवसर प्रधान करता है। लेकिन इस्लाम अपने मूल्य नियमों के संदर्भ से हटकर अन्य विधियों के बीच टकराऊ का अवसर नही छोडता। यह मानव, ब्रह्माण्ड और जीवन की ओर उस इस्लामी दृष्टकोण के उचित है, जिस के बारे मे मैं पहले तुम्हारे सामने विवरण किया था।
इस्लाम धर्म समय की महत्वता की ओर केवल प्रशासनिक या आर्थिक क्षेत्र में आने वाले भौतिक निवेश के संदर्भ में ही नही देखता। बल्कि इस्लाम का दृष्टिकोण इससे भी अधिक ऊँचा है। किन्तु मानव इस्लामिक दृष्टिकोण से भौतिक या सांसारिक क्षेत्र में उत्पादक या सेवक होने से पहले वह अनुपालन करने वाला मुसलमान है, जो अल्लाह के दण्ड से भय रखता है, उसकी ओर से मिलने वाले पुण्य की आशा रखता है, और वह अपने प्रत्येक कथन और कार्य में अल्लाह को उपस्थित मानता है। इस्लाम धर्म में समय के निवेश और आयोजन का अर्थ केवल उसका सही उपयोग ही नही है, जिस पर उत्पाद और भौतिक लाभ निर्भर होता है, बल्कि इसका अर्थ इस से भी अधिक उच्च है। वह यह कि समय का निवेश एक आद्यात्मिक लक्ष्य है, जो क़ियामत के दिन, यानी पुण्य और दण्ड के दिन भय से पैदा होता है।
राजीवः मेरे दिमाग़ में एक और बात है, जो कुछ मुसलमानों के व्यवहार से संबंधित है। लेकिन अगली बैठक तक इस बात को स्थगित करना बेहतर समझता हूँ ..... फिर मिलेंगे ।