पिछले प्रश्ननों का उत्तर साधारण रुप से लोग दो विधि से देते हैं। नास्तिकता की विधि जिसमें यह विश्वास होता है कि कोई ईश्वर ही नहीं और यह ब्रह्माण्ड एक सामग्री है। और दूसरी विधि में यह विश्वास होता है कि हर चीज़ का प्रजापति ईश्वर है, इस विश्वास के कारण बहुत से प्रश्न उठते है, जिनमें से कुछ यह है
क्या यह संभव है कि दुर्घटना से होननेवाले कुछ सहभाग्य के फल के रुप में अचयनित रूप से इस ब्रह्माण्ड का स्वयं ही निर्माण हो गया?
और क्या यह समझ आने वाली बात है कि स्वयं होनेवाली यह दुर्घटना इस नियमित ब्रह्माण्ड के निर्माण का कारण हो?
जब से मनुष्य की सृष्टि हुई है उस समय से पूरे इतिहास मे जिन ऊँचाइयों तक मनुष्य पहुँचा है, यह सब विकास के रुप में हुआ है या केवल एक दुर्घटना है? और हम केवल वायु में उड़नेवाले पंख के समान है जिसको दुर्घटना और अनियमवान पलटना रहता है?
क्या मनुष्य ही विधायक ईश्वर है, वही सृजनकर्ता प्रजापति है, वही सब कुछ है, और उससे हटकर कोई चीज़ नहीं है?
प्रकृति से हटकर सारे अदृश्य क्या केवल मृगतृष्णा ही है जो नास्तिकता की लहरों और समग्र विश्व के आगे छुप जाता है?
क्या मनुष्य केवल एक सामग्री है जिसका कोई हिसाब नहीं है, या मनुष्य असल में बंदर था जिसका चलते समय के साथ विकास होता गया?
और कैसे यह संभव है कि एक बहरा गूँगा मूल ऐसे मनुष्य की सृष्टि करे जिसमें उच्च गुण, आदर्श व्यक्तित्व और बेहतरीन रुप में शारीरक अंगों कि स्थापना हो? और कैसे यह संभव है कि जो विषय स्वयं अपने पास ही ना हो, वही विषय वह किसी और को दे?
दुनिया ही क्या मनुष्य का लक्ष्य है, और उसकी इच्छाओं का अंत है, और ईश्वरीय धर्मों में उपलब्ध उन बातों का कोई हिसाब नहीं है, जिसमें यह कहा गया हैं कि मनुष्य के अलावा भी दुसरी बहुत सी ताकते हैं, या इस जीवन के अलावा भी दूसरा जीवन है?
इस प्रकार के लोगों के विचार के बारें मे ईश्वर ने कहा। और कहते हैं कि हमारी ज़िंदगी तो सिर्फ दुनिया ही की है कि (यहीं) मरते और जीते है और हमें तो ज़माना मार देता है और उन को इस का कुछ इल्म नहीं, सिर्फ़ अटकल से काम लेते हैं। (अल जासीया, 24)
ईश्वर के होने का इन्कार करनेवालों के बारें में ईश्वर ने यह कहा:: और बे-इंसाफ़ी और घमंड से उन से इंकार किया, लेकिन उन के दिल उन को मान चुके थे, सो देख लो कि फ़साद करने वालों का अंजाम कैसा हुआ। (अल नम्ल, 14)
अवश्य रुप से नास्तिकता का विश्वास रखने वाला कोई भी प्राणी (छोटा हो या बडा) जीवन के रहस्य का ज्ञान पूर्ण रुप से प्राप्त नही करता क्यों कि वह अपने आप को मज़बूत समझता है, इसी प्रकार से वह यह मानता है कि जब किसी की आत्मा गले तक पहुँच जाये तो वह लोग इसको दुबारा लौटा नहीं सकते। तो फिर कहाँ है वह मूल जिसके अनुसार यह लोग कहते है वही इस ब्रह्माण्ड के वजूद का कारण है? और जब मनुष्य का शरीर एक बेकार विषय हो गया तो क्यों नहीं यह लोग उसकी आत्मा को लौटाने के लिए उस मूल के आगे विनती करते हैं?
फिर कैसे सारी मानवता धार्मिकता को इस हद तक सम्मान देने पर सहमत होती, अगर नास्तिक लोगों के अनुसार यह बात सही होती कि धार्मिकता केवल कल्पनाएँ है? क्यों इतिहास में अल्लाह के सारे नबी सफ़ल रहे और उनकी कही हुयी बाते लोगों के मन में जीवित रही, जब कि किसी भी मनुष्य के विचार खतम हो जाते है और भूला दिये जाते हैं, बल्कि चलते समय के साथ (चाहे उनके विचार कितने ही अच्छी भाषा में हो) लोग इन से निराश हो जाते है?
और भले काम और बुरे काम करने वाले के बीच अंतर करना कैसे संभव है? बल्कि पापी को उसके पाप से कौन-सी चीज़ रोकेगी? धनी के मन में निर्धनी पर दया करने का भाव कौन-सी चीज़ पैदा करेगी? और कौन सी चीज़ चोर, धोखेबाज़, द्रोही, व्यस्नी को रोकेगी... इन जैसे लोगों को अपनी इच्छाएँ पूरी करने से कौन-सी चीज़ रोकेगी?
नास्तिक समाज अपने आप में गुमराही, स्वार्थी, स्वयं इच्छाओं के प्रेम और इस जैसी दूसरी चीज़ों के बीच भेडियों के झुंड की तरह जीवन बिता रहें हैं, इसी कारण नास्तिकता अप्रसन्न्ता, निर्धनता, व्देष, चिंता और दुःख के वृध्दि का सब से बडा कारण है।
ईश्वर ने कहा और जो मेरी नसीहत से मुँह फेरेगा उसकी ज़िंदगी तंग हो जाएगी और क़ियामत को हम उसे अंधा करके उठाएंगे। (ताहा, 124)
नास्तिकता एक ग़लत विचार है, जिसको न बुध्दि न तर्क और न स्वभाव स्वीकार करता है। यह ज्ञान के बिलकुल विरुध्द है, इसी कारण ज्ञानी लोगों के बीच नास्तिकता को अस्वीकार किया गया है। इसी प्रकार से नास्तिकता तर्क के भी विरुध्द है, क्योंकि इस की बुनियाद जीवन मे तर्क न होने पर आधारित है, यह विचित्र ब्रह्माण्ड अनजानी दुर्घटना का फल है और इस में प्राकृति का कोई हस्त क्षेप नही है। जब कि नास्तिकता का दावा करने वाले लोगों के पास भी सच्चा स्वभाव धार्मिकता की ओर बुलाता है। बे इंसाफ़ी और घमंड से उन से इंकार किया, लेकिन उन के दिल उन को मान चुके थे, सो देख लो कि फ़साद करने वालों का अंजाम कैसा हुआ। (अल नम्ल, 14)
सदा यह प्रश्न उत्तरों पर आधारित होते है।
मनुष्य का यह प्रयत्न व्यर्थ होगा कि वह इन प्रश्नों के उत्तर स्वयं जानने का प्रयास करें । आधुनिक विज्ञान किसी को इन प्रश्नों के उत्तर अब तक नहीं दे सका, इसलिए कि यह सारी बातें धर्म के विभाग के भीतर आती है। इसी कारण विचार अनेक हो गये
और इन बातों के बारे में मिथकों और किंवदंतियाँ अलग-अलग हो गयी, और इस कारण मनुष्य की चिंता और भ्रम बड़ गया।
यह संभव नहीं है कि ईश्वर की ओर से अम्न-आस्ती, सुख और प्रसन्नता की ओर जाने वाले रास्ते की ज्ञानोदय के बिना मनुष्य इन सारी बातों का सही और पर्याप्त उत्तर प्राप्त कर ले।
इन जैसे सारे मुद्यों और प्रश्नों का उत्तर केवल धर्मां ही में उपलब्ध हो सकता है, इसलिए कि यह सब आध्यात्मिक मुद्दें है, और सही धर्म ही सच और दुरुस्त फैसला कर सकता है इसलिए कि ईश्वर की ओर से यही वह एक धर्म है जो नबी और रसूलों के पास भेजा गया। ईश्वर ने कहा कह दो कि खुदा की हिदायत (यानी दीने इस्लाम) ही हिदायत है। (अल बख़रा, 120)
ईश्वर ने कहा कह दो कि हिदायत तो खुदा ही की हिदायत है। (आल इंम्रान, 73)
और इसी कारण मनुष्य के लिए यह अवश्य है कि वह सच्चे धर्म की खोज करें, उसको सीखे और उस पर विश्वास रखे, ताकि भ्रम दूर हो जाये, संदेह अंत हो जाये, सीधे, सुख और प्रसन्नता के रास्ते का ज्ञानोदय हो जाय।
ईश्वर ने कहा और हम ने इन्सान को मिट्टी के खुलासे से पैदा किया है। फिर उस को एक मज़बूत (और महफ़ूज) जगह में नुत्फ़ा बना कर रखा। फिर नुत्फ़े का लोथडा बनाया फिर लोथडे की बोटी बनायी, फिर बोटी की ह़ड्याँ बनायी, फिर हड्डियों पर गोश्त (पोस्त) चढाया, फिर उस को नयी सूरत में बना दिया, तो खुदा जो सब से बेहतर बनाने वाला, बडा बरकत वाला है फिर इस के बाद तुम मर जाते हो। फिर क़ियामत के दिन उठा खड़े। किये । जाओगे। (अल मुमीनून, 12-16)
मालूम यह हुआ कि अंत में दुबारा ज़िंदा किया जाना और ईश्वर की तरफ लौटना है, और यह ब्रह्माण्ड व्यर्थ पैदा नहीं किया गया है, (ईश्वर व्यर्थ कामों से परेह है) बल्कि बडी बडी हिकमतों के कारण इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की गयी है। ईश्वर ने कहा क्या तुम यह ख्याल करते हो कि हमने तुम को बे-फायदा पैदा किया है और यह कि तुम हमारी तरफ लौट कर नहीं आओगे। (अल मूमिनून, 115)
तो मालूम यह हुआ कि ईश्वर ने मानव और भूत प्रेत (जिन) की सृष्टि व्यर्थ नहीं की है, परन्तु एक ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए सृष्टि की है, जिसका कोई साथी नहीं है। यहाँ ईश्वर की प्रार्थना का मतलब आदेशों का पालन करना, नमाज़, ईशवर कि बड़ाई करना, ब्रह्माण्ड का निर्माण करना और मानवता के लाभ के लिए प्रयत्न करना, और इस प्रकार के सारे काम जिसको ईश्वर पसंद करता है और जिससे खुश होता है वह सब काम प्रार्थना का मतलब है।
ईश्वर ने कहा। और मैने जिन्नों और इंसानों को इसलिए पैदा किया है कि मेरी इबादत करें। (अल ज़ारीयात, 56)
सारे लोग और सारी मानवता ईश्वर ही की ओर लौट कर जानेवाली है, और ईश्वर ही की ओर उनका अंतिम स्थान है।
ईश्वर ने कहा और खुदा ही की तरफ (तुम को) लौट कर जाना है। (आले इम्रान, 28)
यह विश्वास मानव के जीवन से व्यर्थता समाप्त करता है, उनको अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करता है, और उनके दिलों में प्रसन्नता पैदा करता है क्या ये किसी के पैदा किए बग़ैर ही पैदा हो गये हैं या ये खुद (अपने आप) पैदा करने वाले है? या उन्होनें आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है? (नहीं) बल्कि ये यक़ीन ही नहीं रखते। (अल तूर 35-36)
निश्चित रुप से इस ब्रह्माण्ड के रहस्य के ज्ञान से जब मनुष्य असमर्थ हो जाता है, और ईश्वर की सृष्टि, धरती, तारे, ग्रह, दिन रात के अनुसरण, जीवन और मृत्यु, और इस ब्रह्माण्ड में ईश्वर की ओर से सृष्टि की हुयी सारी चीज़ों में विचार करता है तो वह स्वयं यह विश्वास कर लेता है कि इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि करने वाला कोई तो है जो उससे ज्यादा शक्तिमान है, और जो इस लायक है कि उसकी विनती की जाय, उसकी प्रार्थना की जाय उससे पुण्य की आशा रखी जाय और उसके दण्ड से डरा जाय। इसी प्रकार से इन सारी बातों के बारें में सोच विचार मनुष्य को एक शक्तिमान और बुध्दिवान प्रजापति के वजूद को स्वीकार करने पर मज़बूत करता है और यह विश्वास दिलाता है कि मूल ईश्वर के जीव से एक प्राणी है, जिसका वजूद पहले कुछ न था।
यह शक्तिमान, बुध्दिमान ईश्वर जिसने प्राणी के सामने अपना परिचय किया, और अपनी निशानियों को प्राणी के लिए गवाह और सबूत के रुप में स्थापित किया, (जब कि ईश्वर को इसकी आवश्यकता नही हैं) और ईश्वर ने अपने आप को बेहतरीन गुणों से विवरण किया, इस ईश्वर के वजूद, देवत्व और खुदाई पर दिव्य धर्म मानसिक आवश्यकता और जन्मजात वृत्ति गवाह है, और सारे समाज इसी पर सहमत है।