अधिकतर लोगों का यह विचार है कि प्रसन्नता का मतलब सुख है । वे सुख के लिए प्रयास करते हैं, जो अधिकतर समय उनके लिए दुख, कष्ट, एकांत और अप्रसन्नता का कराण बनता है। वे भूल जाते हैं कि प्रसन्नता से प्रभावित करने वाली यह चीज़ें अनके लिए शारीरिक नष्ट का कारण बनती है। बल्कि कभी-कभी स्वयं प्रसन्नता ही कष्ट बन जाती है। अगर कभी आप कुएँ में गिरे हुये किसी बालक की जान बचाने के लिए कुएँ में कूद जाये। तो भी आप प्रसन्न होंगें । हालांकि कुएँ में उतरने के कारण आप घायल और पीडित हो जाते हैं। क्या आप ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानी और शिष्य की ओर से की जानेवाली मेहनत नही देखते। जो उनके लिए प्रसन्नता का कारण बनती है। उन्हें प्रसिद्धता के ऊँची स्थिति तक ले जाती है। हालांकि वे अनगिनत कष्टों से पीडित होते हैं। इसी प्रकार खिलाडी अपने खेल से प्रसन्न होता है। हालांकि उसके शरीर से पसीना टपकता है। इसी प्रकार वह व्यक्ति जो पीडित और कमज़ोर लोगों की सहायता का प्रयास करता है। थकान के बावजूद इस सहायता से वह प्रन्न होता है। इसी प्रकार अपने इष्ट धर्म को पीडित और ग़रीब लोगों के लिए ख़र्च करता है। (और प्रसन्न होता है)। मानव अपने सुख और इष्ट चीज़ों को निछावर करता है। ताकि वह प्रसन्न हो।
प्रसन्नता के विभिन्न परिभाषा, टिप्पणी और दृष्टि के कारण मानव असली प्रसन्नता का विवरण और उसको प्राप्त करने के लिए अपने लगातार प्रयासों के प्रति भ्रम में पड़ जाता है।
किस चीज़ से मानव की सृष्टि हुई
ईशवर ने कहा वही है जिसने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर रक्त के लोथड़े से, फिर वह तुम्हें एक बच्चे के रूप में निकालता है, फिर (तुम्हें बढ़ाता है) ताकि अपनी प्रौढ़ता को प्राप्त हो, फिर मुहलत देता है कि तुम बुढ़ापे को पहुँचो – यद्यपि तुममें से कोई इससे पहले भी उठा लिया जाता है – और यह इसलिए करता है कि तुम एक नियत अवधि तक पहुँच जाओ और ऐसा इसलिए है कि तुम समझो। (अल ग़ाफिर, 67)
हाँ.. मानव वास्तव में मिट्टी और व्यर्थ पानी से पैदा किया गया है, उसका अंत बेजान शरीर है। वह जन्म से मृत्यु के बीच अपने पेट में गंदगी लिये फिरता है। अपने शरीर से निकलने वाली हर चीज़ को अशुद्ध समझता है। इन सबके बावजूद वह अपने ईशवर का विरोधी होता है। मानव कितना ही अधिक अकृतज्ञ है। ईशवर ने कहा । विनिष्ट हुआ मनुष्य। कैसा अकृतज्ञ है। उसको किस चीज़ से पैदा किया। तनिक-सी बूँद से उसको पैदा किया, तो उसके लिए एक अन्दाज़ा ठहराया, फिर मार्ग को देखो, उसे सुगम कर दिया, फिर उसे मृत्यु दी और क़ब्र में उसे रखवाया, फिर जब चाहेगा उसे (जीवित करके) उठा खड़ा करेगा। (अ-ब-स, 17-22)
इसके बावजूद मानव सारे जीव से अधिकतर सम्मानित है। ईशवर ने मानव के बाप आदम के सामने एंजीलों को सजदा करने का आदेश दिया। (धरती और सारे जानवरों को मानव के काम में लगा दिया। वह बुद्धि प्रदान की जिससे वह चमत्कार दिखाता है। ईशवर ने कहा। हमने आदम की संतान को श्रेष्ठता प्रदान की और उन्हें थल और जल में सवारी दी और अच्छी पाक चीज़ों से उन्हें रोज़ी दी और अपने पैदा किए हुए बहुत-से प्राणियों की अपेक्षा उन्हें श्रेष्ठता प्रदान की। (अल-इस्रा, 70)
मानव के हक़ीकत को इन दो हक़ीकी विचारों के बिना समझना संभव नही है। इसी विचार से उस विश्वास पर आधारित संतुलन बनता है, जो यह संदेश देता है, मानव को मिलनेवाले सम्मान, धन, ज्ञान सारी चीज़ें केवल ईशवर ही की दया है। ईशवर ने कहा । तुम्हारे पास जो भी नेमत है वह अल्लाह ही की ओर से है। फिर जब तुम्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो फिर तुम उसी के आगे चिल्लाते और फ़रियाद करते हो। (अल-नहल, 53)
मानव स्वयं मांस और हड्डियों का ढाँचा है। इसी के द्वारा मानव के व्यक्तित्व को सम्मान मिलता है। इस व्यक्तित्व को पवित्र बनाना लाभदायक शिक्षा और अच्छे कार्य करना ज़रूरी है। हालांकि मानव कमज़ोर है। फिर भी ईशवर ने उसको ऐसे गुणों से सम्मानित बनाया, जो मानव को उस बोझ (अमानत) को उठाने की क्षमता दी है, जिसको उठाने से ब्रह्माण्ड की सारी चीज़ें असहाय थी। ईशवर ने कहा । हमने अमानत को आकाशों और धरती और पर्वतों के समक्ष प्रस्तुत किया, किन्तु उन्होंने उसके उठाने से इन्कार कर दिया और उससे डर गए। लेकिन मनुष्य ने उसे उठा लिया। निश्चय ही वह बड़ा ज़ालिम, नादान, आवेश के वशीभूत हो जानेवाला है। (अल-अहज़ाब, 72)
जब मानव दो हक़ीक़ी बातों के बीच सन्तुलन की शर्त के साथ अपने विश्वास (ईमान) में संदेहयुक्त हो जाये। उसकी बुद्धि केवल पहली हक़ीकत की ओर ही देखने लगे। तो वह अपने आप को गंदा, अत्याचार शरीर समझता, जिसके सामने कोई लक्ष्य नही होता। वह अपनी हवस को जानवरों के प्रकार पूरा करता है। यहाँ तक कि अपने व्यक्तित्व को नीच बना लेता है। ईशवर ने कहा। रहे वे लोग जिन्होंने इन्कार किया, वे कुछ दिनों का सुख भोग रहे हैं और खा रहे हैं, जिस तरह चौपाए खाते हैं। और आग उनका ठिकाना है । (मुहम्मद, 12)
फिर वह दूसरी हक़ीकत के विचार के साथ अन्याय करे। तो यह अन्याय उसको घमण्ड और सरकशी की ओर ले जाता है। वह यह भूल जाता है कि उसको अपने ईशवर की ओर लौटना है। ईशवर ने कहा । कदापि नहीं, मनुष्य सरकशी करता है, इसलिए कि वह अपने आपको आत्मनिर्भर देखता है। निश्चय ही तुम्हारे रब ही की ओर पलटना है। (अल-अलक़, 6-8)
मानव के लिए इस बात की आवश्यकता है कि वह अपने व्यक्तित्व को जाने। उसको सुधारे। इसीलिए अप्रसन्नता का महत्वपूर्ण कारण अपने व्यक्तित्व को न जानना है, समाज में अपनी स्थिती को न पहचानना, अपने छवि और व्यक्तिगत क्षमता का ज्ञान न रखना ।
मानव का जन्म किस कारण हुआ ।
ईशवर ने ब्रह्माण्ड की हर चीज़ को पैदा किया। ईशवर कोई काम व्यर्थ नही करता । ईशवर ने कहा । तो क्या तुमने यह समझा था कि हमने तुम्हें व्यर्थ पैदा किया है और यह कि तुम्हें हमारी ओर लौटना नही है। तो सर्वोच्च है अल्लाह, सच्चा सम्राट । उसके सिवा कोई पूज्य-प्रभु नही, अधीश है महिमाशाली सिंहासन का। (अल-मोमिनून, 115-116)
बल्कि ईशवर ने प्रार्थना के लिए सारे प्रणियों को पैदा किया है। प्रार्थना की परिभाषा जीवन के हर भाग में उपस्थित है। यहाँ तक कि प्राणि के कार्य, खेल, कूद और सारा जीवन प्रार्थना में शामिल है। केवल धार्मिक संस्कार का नाम प्रार्थना नही है। मैंने तो जिन्नों और मनुष्यों को केवल इसलिए पैदा किया है कि मेरी बन्दगी करें। (अल-ज़ारियात 56)
जिस व्यक्ति को इस सत्यता का ज्ञान न हो, वह सदा अज्ञान से पीडित रहेगा । अपने जीवन को संदेह और भ्रम से अप्रसन्न बनायेगा । इस मानव के स्पष्ट प्रार्थना प्रसन्नता से और संसारिक जीवन से अलग है। इसी प्रकार संसारिक जीवन भविष्य से अलग है। ईशवर ने धरती और आकाश में स्थित हर चीज़ को मानव के काम में लगा दिया है। ईशवर ने कहा । जो चीज़ें आकाशों में हैं और जो धरती में है, उसने उन सबको अपनी ओर से तुम्हारे काम में लगा रखा है। निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो सोच-विचार से काम लेते हैं। (अल-जासिया, 13)
मानव को यह ज्ञान रखना चाहिए कि वह परीक्षा के लिए अपने असली मालिक की ओर से इस ज़मीन पर उत्तराधिकारी बनाया गया है। वही है जिसने तुम्हें धरती में ख़लीफ़ा (अधिकारी, उत्तराधिकारी) बनाया और तुममें से कुछ लोगों के दर्जे कुछ लोगों की अपेक्षा ऊँचे रखे ताकि जो कुछ उसने तुमको दिया है उसमें वह तुम्हारी परीक्षा ले। निस्संदेह तुम्हारा रब जल्द सज़ा देने वाला है। और निश्चय ही वह बडा क्षमाशील, दयावान है। (अल-अनआम, 165)
मानव को अपने वजूद की सत्यता का ज्ञान होने के बाद जीवन की वास्तविकता के बारे में उसके मन में विचार करने की इच्छा पैदा होती है। मानव के मन में जीवन से लगाव होना उसकी प्रकृति है। यही वह स्थंभ है जिस पर संसार की सारी रुची और सुख आधारित है। मन में पैदा होने वाली इच्छाओं को प्राप्त करने से जीवन ही पर आशा निर्भर होती है। तो जीवन का लक्ष्य क्या है। निस्संदेह मृत्यु और जीवन का लक्ष्य लोगों की परीक्षा लेना है कि कौन सब से अच्छे कर्म करनेवाला है। ईशवर ने कहा । जिसने बनाया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करें कि तुममें कर्म की दृष्टि से कौन सब से अच्छा है। वह प्रभुत्वशाली, बड़ा क्षमाशील है। (अल-मुल्क, 2)
यही वास्तविकता है, लेकिन अक्सर लोग नही जानते। हाँ संसार को बनाने की यही तत्वदर्शिता है। ईशवर ने कहा । सांसारिक जीवन की उपमा तो बस ऐसी है जैसे हमने आकाश से पानी बरसाया तो उसके कारण धरती से उगनेवाली चीज़ें, जिनको मनुष्य और चौपाये सभी खाते हैं, धनी हो गई, यहाँ तक कि जब धरती ने अपना श्रृंगार कर लिया और सँवर गई और उसके मालिक समझने लगे कि उन्हें उस पर पूरा अधिकार प्राप्त है कि रात या दिन में हमारा आदेश आ पहुँचा। फिर हमने उसे कटी फ़सल की तरह कर दिया, मानो कल वहाँ कोई आबादी ही न थी। इसी तरह हम उन लोगों के लिए खोल-खोलकर निशानियाँ बयान करते हैं जो सोच-विचार से काम लेना चाहें। (यूनुस, 24)
ईशवर ने कहा । और उनके समक्ष सांसारिक जीवन की उपमा प्रस्तुत करो, यह ऐसी है जैसे पानी हो, जिसे हमने आकाश से उतारा तो उससे धरती की पौध घनी होकर परस्पर गुँथ गई। फिर वह चूरा-चूरा होकर रह गई जिसे हवाएँ उड़ाए लिये फिरती है। अल्लाह को तो हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है। (अल-कहफ़, 45)
हमारा यह जीवन केवल एक मार्ग है, शयन गृह नही है। जीवन एक पथ है जो हमें परलोक तक पहुँचाता है। संसार के समाप्त हो जाने से जीवन समाप्त नही होता है। बल्कि परलोक में सदा रहनेवाला एक जीवन है। संसारिक जीवन केवल खेल-कूद, और वेश-भूषा है जैसा कि ईशवर ने कहा। जानलो, संसारिक जीवन तो बस एक खेल और तमाशा है और एक साज-सज्जा और तुम्हारा आपस में एक दुसरे पर बड़ाई जताना, और धन और संतान में परस्पर एक-दूसरे से बढा हुआ प्रदर्शित करना, वर्षा की मिसाल की तरह जिस की वनस्पती ने किसान का दिल मोह लिया, फिर वह पकजाती है, फिर तुम उसे देखते हो कि वह पीली हो गई। फिर वह चूर्ण-विचूर्ण होकर रह जाती है, जबकि आख़िरत में कठोर यातना भी है और अल्लाह की क्षमा और प्रसन्नता भी। सांसारिक जीवन तो केवल धोखे की सुख-सामग्री है।(अल-हदीद, 20)
इस वाक्य में संसारिक जीवन को निम्न बताया गया है। जिससे उसका महत्व कम हो जाता है। लोग इससे दूर रहते हैं। परलोक से इसका संबंध बनाते हैं। जब संसारिक जीवन को उसी के मापदंड से मापा जायेगा तो आँखों के सामने जीवन एक महान नज़र आयेगा। लेकिन जब वजूद के मापदंड से मापा जायेगा और परलोक के तराज़ू से तोला जायेगा तो जीवन साधारण निम्न खेल-कूद, वेश-भूषा दिखाई देगा। जीवन में स्थिर हर रुची और हर प्रयास की यही सत्यता है। हाँ यही संसारिक जीवन की वास्तविकता है। जब मन में सत्यता के खोज की प्रेरणा होगी, तो मन इस वास्तविकता से प्रभावित होगा। ख़ुरआन का लक्ष्य इस वास्तविकता के द्वारा संसारिक जीवन से अलग-थलग होना, विकास न करना और उत्तराधिकारी न बनना नही है। बल्कि ख़ुरआन का लक्ष्य भावनाओं, मानसिक मूल्यों, समाप्त हो जानेवाले सामाग्री के धोखे से दूरी और धरती से संबंधित आकर्शित होने के नियमों को सुधारना है। जीवन तो केवल पुल है, जिसपर चलते हुए सारा ब्रह्माण्ड परलोक की ओर जाता है। यह संसार अपनी छोटी उम्र और तुरन्त समाप्त होने के कारण भविष्य में आनेवाले शाश्वत जीवन के सामने कुछ नही। इसी प्रकार परलोक का कभी समाप्त न होनेवाला जीवन, इस संसारिक जीवन में मानव की स्थिती पर आधारित है। तो फिर संसारिक जीवन सदा परीक्षा की घडी है। मानव के आस-पास की सारी सामाग्री, रुची, और सुख या कष्ट, नष्ट और घटनाएँ, यह सब कुछ लम्हों की बात है, जो तुरन्त ही समाप्त हो जायेगी। फिर संसारिक जीवन के सारी चीज़ों को पल्ले में रखा जायेगा, ताकि सदा रहनेवाला स्थान तय कर दिया जाय। वरना तुम अपनी क़बर में क्या ले जाओगे। ईशवर ने कहा । और निश्चय ही तुम उसी प्रकार एक-एक करके हमारे पास आ गये जिस प्रकार हमने तुम्हें पहली बार पैदा किया था। और जो कुछ हमने तुम्हें दे रखा था, उसे अपने पीछे छोड़ आये, और हम तुम्हारे साथ तुम्हारे उन सिफ़ारिशों को भी नही देख रहे हैं जिनके विषय में तुम दावे से कहते थे कि वे तुम्हारे मामले में (अल्लाह के) शरीक हैं। तुम्हारे परस्परिक संबन्ध टूट चुके हैं और वे सब तुमसे गुम होकर रह गये जिनका तुम दावा रखते थे। (अल-अनआम, 94)
अधिकतर लोगों को क्या हो गया कि वे इस हक़ीक़त से असावधान है, इसी की सूचना ईशवर ने पहले ही दी है। ईशवर ने कहा । वे सांसारिक जीवन के केवल बाह्य रुपको जानते हैं, किन्तु आख़िरत की ओर से वे बिल्कुल असावधान हैं। (अल-रूम, 7)
उस व्यक्ति का क्या होगा, जो संसारिक जीवन से आकर्शित हो, और अपने ईशवर से मिलने की आशा न रखता हो। ईशवर ने कहा। रहे वे लोग जो हमसे मिलने की आशा नही रखते और संसारिक जीवन ही पर निहाल हो गये हैं और उसी पर संतुष्ट हो बैठे और जो हमारी निशानियों की ओर से असावधान है, ऐसे लोगों का ठिकाना आग है, उसके बदले में जो वे कमाते रहे। (यूनुस, 7,8)
उस व्यकित का क्या होगा, जो संसारिक जीवन को प्राथमिकता दे। ईशवर ने कहा । तो जिस किसी ने सरकशी की और सांसारिक जीवन को प्रथमिकता दी होगी, तो निस्संदेह भडकती आग उसका ठिकाना है। और रहा वह व्यक्ति जिसने अपने रब के सामने खड़े होने का भय रखा और अपने जी को बुरी इच्छा से रोका, तो जन्नत ही उसका ठिकाना है। (अल-नाज़िआत, 37, 41)
हाँ। क्योंकि वे धर्म को खेल-तमाशा बनालिये और संसारिक जीवन में उन्हें धोखे में डाल दिया। ईशवर ने कहा। उनके लिये जिन्होंने अपना धर्म खेल और तमाशा ठहराया तथा जिन्हें सांसारिक जीवन ने धोखे में डाल दिया, तो आज हम भी उन्हें भुलादेंगे जिस प्रकार वे अपने इन दिन की मुलाक़ात को भूल रहे और हमारी आयतों का इन्कार करते रहे। (अल-आराफ़, 51)
हाँ। क्योंकि वे ईशवर के मार्ग में टेढ़ पैदा करना चाहे। ईशवर ने कहा । जो आख़िरत की अपेक्षा सांसारिक जीवन को प्राथमिकता देते हैं और अल्लाह के मार्ग से रोकते हैं और उसमें टेढ़ पैदा करना चाहते हैं, वही पहले दर्जे की गुमराही में पड़े हैं। (इब्राहीम, 3)
इसका मतलब यह नही है कि संसारिक जीवन मानव की दृष्टि में अल्प हो जाय, और मानव ज्ञान और अपने कर्मों से धरती के विकास को छोड़कर सन्यास लेलें और अपने मौत का इन्तेज़ार करें। कदापि । बल्कि सही उदाहारण यह है कि हम संसारिक जीवन में उसी प्रकार व्यवहार करें जैसे ईशवर ने कहा । जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है, उसमें आख़िरत के घर का निर्माण कर और दुनिया में से अपना हिस्सा न भूल, और भलाई कर जिस तरह अल्लाह ने तेरे साथ भलाई की है, और धरती में बिगाड़ मत चाह। निश्चय ही अल्लाह बिगाड़ पैदा करनेवालों को पसन्द नही करता। (अल-क़सस, 77)
ईशवर ने यह भी कहा। जो चीज़ भी तुम्हें प्रधान की गई है वह तो सांसारिक जीवन की सामग्री और उसकी शोभा है। और जो कुछ अल्लाह के पास हैं वह उत्तम और शेष रहनेवाला है। तो क्या तुम बुद्धि से काम नही लेते। (अल-क़स्स, 60)
इस दृष्टि से संसारिक जीवन मानव की नज़र में क़ीमती ख़ज़ाना है। जिसका उपयोग आवश्यक है। संसारिक जीवन अपनी सत्यता के अनुसार शाश्वत प्रसन्नता की ओर पहुँचाने वाले पुल से अधिक महत्व का अधिकार नही रखती है। संसारिक जीवन में मिलने वाली ख़ुशियों के रंग केवल एक संसारिक जीवन की सामाग्री और साज-बाज है। ईशवर ने कहा ।मनुष्यों को चाहत की चीज़ों से प्रेम शोभायमान प्रतीत होता है कि वे स्त्रियाँ, बेटे, सोने-चाँदी के ढेर और निशान लगे (चुने हुए) घोड़े हैं और चौपाए और खेती। यह सब सांसारिक जीवन की सामाग्री है, और अल्लाह के पास ही अच्छा ठिकाना है। (अले-इमरान, 14)
ईशवर ने कहा । माल और बेटे तो केवल सांसारिक जीवन की शोभा हैं, जबकि बाक़ी रहनेवाली नेकियाँ ही तुम्हारे रब के यहाँ परिणाम की दृष्टि से भी उत्तम है और आशा की दृष्टि से भी वही उत्तम हैं। (अल-कहफ़, 46)
जब सांसारिक जीवन का उपयोग सही हो तो स्वयं उसको भी बुरा न माना जायेगा । ईशवर ने कहा । कहो, अल्लाह की उस शोभा को जिसे उसने अपने बन्दों के लिये उत्पन्न किया है, और आजीविका की पवित्र, अच्छी चीज़ों को किसने हराम करदिया । कह दो, ये सांसारिक जीवन में भी ईमानवालों के लिए हैं, क़ियामत के दिन तो ये केवल उन्ही के लिए होंगी। इसी प्रकार हम आयतों को उन लोगों के लिए सविस्तार बयान करते हैं जो जानना चाहें । (अल-आराफ़, 32)
इसी विचार के साथ मुस्लिम संसारिक जीवन की रुचियों को अपनाता है। जबकि उसका यह विश्वास होता है कि संसार में जिस किसी चीज़ का वह मालिक है वह सारी चीज़ें शाश्वत नही है। इसी लिए वह संसार से लाभ उठाने में सीमाओं के भीतर रहते हुए सदा प्रयास करता रहता है। उसके भीतर यह विश्वास होता है कि उसकी संपत्ति बनने वाली सारी चीज़ों का स्थान उसका हाथ है न कि मन इस जीवन में उसको प्राप्त होने वाली चीज़ें या उससे खोनेवाली चीज़ें उसके लिए किसी नष्ट का कारण नही है। ईशवर ने कहा । जो मुसीबत भी धरती में आती है और तुम्हारे अपने ऊपर, वह अनिवार्यतः एक किताब में अंकित है, इससे पहले कि हम उसे अस्तित्व में लायें – निश्चय ही यह अल्लाह के लिए आसान है – (यह बात तुम्हें इसलिए बता दी गई) ताकि तुम उस चीज़ का अफ़सोस न करो जो तुमसे जाती रहे और न उसपर फूलजाओ जो उसने तुम्हें प्रदान की हो। अल्लाह किसी इतरानेवाले, बड़ाई जतानेवाले को पसन्द नही करता। (अल-हदीद, 22, 23)
इसी विचार के साथ मुस्लिम संसारिक सामाग्री, रुची और शोभाओं से लाभ उठाता है। ईशवर द्वारा उसको पुण्य भी मिलता है। उसकी दृष्टि में संसारिक जीवन भविष्य जीवन से, शरीर का सुख आत्मा के सुख से, प्रसन्नता संसारिक सामाग्री, आंतरिक सुख और खुशी से संबन्धित है।
संसारिक जीवन को समझने के लिए मुस्लिम विचार करते करते तीसरे और अंतिम कड़ी तक पहुँचता है। वह कडी ब्रह्माण्ड है। जिसमें सारे जीव रहते हैं। मुस्लिम ब्रह्माण्ड में विचार करते हुए सब से पहले ईशवर की यह वाणी पढ़ता है। कहो, देख लो, आकाशों और धरती में क्या कुछ है। किन्तु निशानियाँ और चेतावनियाँ उन लोगों के कुछ काम नही आती जो ईमान न लाना चाहें। (यूनुस, 101)
फिर मुस्लिम ख़ुरआन के कई वाक्य पढ़ने लगता है, जो उसको ईशवर के बनाये हुए जीव और उसकी उच्च कारीगरी में विचार करने का सन्देश देती है। ताकि वह इन वाक्य से उसी समान परिणाम प्राप्त करें जिस समान पूर्व काल में विचार करनेवालों ने संसारिक जीवन की सत्यता के प्रति प्राप्त किया था। उसको यह ज्ञान होगा कि ब्रह्माण्ड की सत्यता को समझने के लिए दो बातों का ज्ञान ज़रूरी है। 1. यह कि ब्रह्माण्ड में स्थिर अधिकतर जीव स्वयं मानव ही के काम में लगाये गये हैं, क्योंकि मानव का सारे जीव पर सर्वश्रेष्ठ होना केवल उसकी कुछ विशेषताओं के कारण नही है। बल्कि सारे जीव को उसकी सेवा करने और सुख पहुँचाने में लगा देने के कारण भी है। ईशवर ने कहा। क्या तुमने देखा नही कि अल्लाह ने, जो कुछ आकाशों में और जो कुछ धरती में है, सबको तुम्हारे काम में लगा रखा है और उसने तुमपर अपनी प्रकट और अप्रकट अनुकम्पाएँ पूर्ण कर दी है। इसपर भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह के विषय में बिना किसी ज्ञान, बिना किसी मार्गदर्शन और बिना किसी प्रकाशमान किताब के झगड़ते हैं। (लुक़मान, 20)
ईशवर ने कहा । और उसने तुम्हारे लिये रात और दिन को और सूर्य और चन्द्रमॉ को कार्यरत कर रखा है। और तारे भी उसी की आज्ञा से कार्यरत हैं – निश्चय ही इसमें उन लोगों के लिए निशानियाँ हैं जो बुद्धि से काम लेते हैं। (अल-नहल, 12)
ईशवर ने कहा। वही तो है जिसने तुम्हारे लिये धरती को वशीभूत किया। अतः तुम उसके (धरती के) कन्धों पर चलो और उसकी रोज़ी में से खाओ, और उसी की ओर दोबारा उठकर (जीवित होकर) जाना है। (अल-मुल्क, 15)
मुस्लिम ख़ुरआन के बहुत सारे वाक्य में ब्रह्माण्ड को अपने काम में लगाने और स्वयं को शक्तिमान बनाने का प्रमाण पाता है। इसमें यह खुला संदेह है कि ब्रह्माण्ड से मानव को लगाव होना ज़रूरी है, और ब्रह्माण्ड में मानव पर आनेवाली प्रकृति विपदा और कष्टों से भय न खाने का आदेश है। क्योंकि प्रकृति सदा कमज़ोर मानव को चुनौती नही देती। मानव भी सदा प्रकृति के बिगाड़ पर नियंत्रण रखने के लिए दबाव में नही है।
2. यह है कि ब्रह्माण्ड ने अभी तक मानव के लिए अपने सारे रहस्य नही खोले हैं। हालांकी मानव शक्तिशाली और प्रभाव रखता है, फिर भी बहुत सारी चीज़ें मानव के ज्ञान से दूर है। या उसके नियंत्रण से बाहर है। ब्रह्माण्ड में बहुत सारे एंजील(फरिशते) भूत प्रेत हैं। दूसरे और बहुत से प्राणी है। मानव के बस में यह नही कि वह उसकी सत्यता का ज्ञान प्राप्त कर लें या कस से कम उसके वजूद का ज्ञान प्राप्त कर लें। ब्रह्माण्ड में मानव का वजूद छोटे कण से अधिक कुछ नही है। जिसका इस ब्रह्माण्ड के महानता और फैलाव के सामने कोई हिसाब नही है।
ब्रह्माण्ड के प्रति इन दो बातों द्वारा मुस्लिम की दृष्टि पूर्ण होती है। वह सारे जीव के बीच अपने विशेष स्थान का संपूर्ण ज्ञान रखता है। ईशवर ने उसको संसार का केन्द्र बनाया है। इसके लिए दूसरी अधिकतर जीव काम में लगे हुए हैं। साथ साथ मुस्लिम को इस बात का भी ज्ञान है कि कुछ द्वार अभी उसकी सामने बंद है वह अपने चमत्कारी क्षमता के कितने ही उच्च स्थान पर हो, फिर भी वह इन द्वारों को खटखटा नही सकता। आस-पास रहनेवाली चीज़ों के साथ मानव का संबन्ध विनम्रता और चरित्र के नियमों पर आधारित है। अपने संबंधों में दुर्व्यवहार करनेवाले लोग अप्रसन्नता, कष्ट और नष्ट मे जीवन व्यतीत करते हैं। वे समस्याओं का सामना करते हैं। क्योंकि उनके संबन्ध असंतुलित और नियम विरुद्ध है। यह संबंध घमंड, जलन, ग़लत सोंच, मक्कारी और दूसरों की ग़लतियों की खोज पर आधारित है। यह सब बातें मानव को अप्रसन्न और दुखी बनाती है। उसके भीतर दुविधा भरे विचार पैदा करती है। इसी कारण मानव सदा दुख और तनाव से पीडित रहता है। तो फिर कैसे उसको सुख और प्रसन्नता प्राप्त होगी । ईशवर ने कहा । न अच्छे आचरण परस्पर समान होते हैं और न बुरे आचरण। तुम (बुरे आचरण की बुराई को) अच्छे से अच्छे आचरण के द्वारा दूर करो। फिर क्या देखोगे कि वही व्यक्ति, तुम्हारे और जिसके बीच वैर पड़ा हुआ था, जैसे वह कोई घनिष्ट मित्र है। किन्तु यह चीज़ केवल उन लोगों को प्राप्त होती है जो धैर्य से काम लेते हैं, और यह चीज़ केवल उसको प्राप्त होती है जो बडा भाग्यशाली होता है। (अल-फुस्सिलत 34, 35)
अपने जीवन और संबन्धों को अधिकार और कर्तव्य के नियमों पर आधारित करनेवाला मानव अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करता है। अधिकार में छूट देता है और दुशमनों को माफ करता है। यह मानव इन सब चीज़ों के बाद निस्संदेह प्रसन्न है। प्रेम मानवता के बीच आपसी व्यवहार में उच्च स्थान रखता है। प्रेम का मतलब मोहब्बत, दयालुता है। और यही मानव का सही स्वभाव है।
इसी विश्वास द्वारा मानव अपने पूज्य प्रभु, अपनी आत्मा और ब्रह्माण्ड के साथ संझौता कर लेता है। वह सबसे पहले ईशवर के लिए बन्दगी की सत्यता का ज्ञानी है। प्रार्थना के प्रति अपने कर्तव्य निभाता है। फिर वह एक प्राणि होने के रूप में अपने मूल्य का भी ज्ञान रखता है, जिसके लिए ईशवर ने सारे जीव को काम में लगाया है। वह यह भी जानता है उसके लिए बनाये गये स्वर्ग की ओर लौटने से पहले धरती पर परीक्षा के लिए उतारा गया है। वही इस धरती के विकास का ज़िम्मेदार है। ईशवर ने कहा। उसी ने तुम्हें धरती से पैदा किया और उसमें तुम्हें बसाया। अतः उससे क्षमा माँगो, फिर उसकी ओर पलट आओ। निस्संदेह मेरा रब निकट है, प्रार्थनाओं को स्वीकार करनेवाला भी। (हूद, 61)
मानव कि यह ज़िम्मेदारी है वह स्वयं को शरिअत के नियम और ज़रूरत की सीमाओं में रहते हुए अपनी इच्छाओं को अपनाये। जब हम प्रजापति ईशवर, व्यक्तित्व और ब्रह्माण्ड की इस संपूर्ण परिभाषा तक पहुँच जायेंगे, तो हमे इस परिभाषा के अनुसार पालन करने से मिलने वाले वास्तविक परिणाम के बारे में प्रश्न करने का अधिकार होगा। जब मानव इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करलेगा तो निश्चय वह यह परिणाम प्राप्त करेगा कि दोनों (संसारिक और परलोक) जीवन में प्रसन्नता ईशवर की पसन्द, उसके आदेश और निशेध का पालन करने और उसकी सीमाओं को पार न करने से संबन्धित है। प्रसन्नता, शरीर और आत्मा के बीच, व्यक्तिगत और सामूहिक आवश्यकताओं के बीच, संसार और परलोक की ज़रूरतें के बीच संतुलन रखने से प्राप्त होती हैं। संसार में मिलने वाली प्रसन्नता (चाहे कितनी ही अधिक हो) अल्प प्रसन्नता है। क्योंकि संसार कष्ट, कर्म और परीक्षा का गृह है। परलोक हिसाब-किताब का गृह है। जो व्यक्ति परलोक में सफल हो जाये, वह संपूर्ण औक सदा रहनेवाली प्रसन्नता प्राप्त करलेगा। ईशवर ने कहा । उन्हें उनका रब अपनी दयालुता और प्रसन्नता और ऐसे बाग़ों की शुभ-सूचना देता है जिनमें उनके लिए स्थायी सुख-सामाग्री है। उनमें वे सदैव रहेंग। निस्संदेह अल्लाह के पास बडा बदला है। (अल-तौबा, 21, 22)
मानवता के लिए प्रसन्न होने, सुखी भावना प्राप्त करलें, संसार और परलोक में शुभ जीवन बिताने के लिए विश्वास (ईमान) और अच्छे कार्य ज़रूरी है। ईशवर ने कहा। जिस किसी ने भी अच्छा कर्म किया, पुरुष हो या स्त्री, शर्त यह है कि वह ईमान पर हो तो हम उसे अवश्य पवित्र जीवन-यापन कराएँगे। ऐसे लोग जो अच्छा कर्म करते रहे उसके बदले में हम उन्हें अवश्य उनका प्रतिदान प्रदान करेंगे। (अल-नहल, 97)